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________________ बंधन, पद्मासनस्थ गुरु द्वारा स्नावजल संयुक्त तीर्थ जलसे गर्भवतीको सातबार अभिसिंचन-जिनदर्शनगुरुवंदन-दान-दंपतिको मंत्रोच्चारपूर्वक आशीर्वाद और ग्रन्थि वियोजनका विधि क्रमसे निरूपित किया है। (यहाँ जैन वेदमंत्रोंका आविर्भाव और अद्यावधि तवारिख पेश की हैं।) सर्व संस्कार वर्णनके पर्यंतमें उन संस्कारों में आवश्यक सामग्रीकी सूचि दी है, वैसे ही यहाँ भी गर्भाधानावश्यक सामग्रीकी सूचि दी है। चतुर्दश स्तम्भ:- पुंसवन संस्कार--गर्भावस्थाके आठ मास व्यतीत होने पर और सर्व दोहद पूर्ति बाद यथायोग्य समयमें पुंसवन कर्म किया जाता है। जिसमें सर्व विधि गर्भाधानकी तरह करने का विधान किया गया है। पंचदश स्तम्भः-जन्म संस्कार-अनुमानित समय पर कुलगुरु और ज्योतिषीका आना, जन्म होने पर जन्मक्षण जानकर जन्म-लग्न धारण करना, नालोच्छेद पूर्व दान-दक्षिणा, श्रावक- गुरू द्वारा मंत्रोच्चारसे आशीर्वाद, नालोच्छेद, सात बार अभिमंत्रित जलसे बालकका स्नान, पश्चात् रक्षामंत्रसे मंत्रित भस्मादिकी गुटकी, काले सूत्रमें लोहा-वरुणमूल-रक्त चंदनादिके दूकड़े- कौडीके साथ बांधकर, उसे कुलवृद्धा स्त्रियों द्वारा बालकके हाथ पर बंधवानेका विधान किया गया है। षोड़श स्तम्भः--चंद्र-सूर्य दर्शन--जन्म दिनसे तिसरे दिन कुलगुरु द्वारा अर्हत्पूजन पूर्वक जिन प्रतिमाके सामने स्वर्णादि धातुमय या रक्तचंदनादि काष्टमय सूर्य की प्रतिमाकी स्थापना और सूर्य सम्मुख ले जाकर सूर्यदर्शन एवं इसी तरह उसी रात्रिको चंद्रकी प्रतिमा स्थापन और दर्शन मंत्रोच्चारपूर्वक करवाने का विधान किया गया है। सप्तदशस्तम्भः--क्षीरासन-बालक और माताको अभिषेक-मंत्रोच्चारसे आशीर्वाद और बालकको स्तनपान करवानेका विधान किया है। अष्टादश स्तम्भः--षष्ठी संस्कार--जन्मके छठे दिन संध्या समय षष्ठी पूजन-रात्री जागरिकाप्रातः देवदेवी विसर्जन और कुलगुरु द्वारा पंचपरमेष्ठि मंत्रसे मंत्रित जलसे अभिषेक और मंत्रपूर्वक आशीर्वाद प्रदानका विधान किया है। एकोन विंशति स्तम्भः--शुचिकर्म संस्कार--निषेधित नक्षत्रों के अतिरिक्त सूतक दिन पूर्ण होने पर कुलवर्गादि संबंधियों को बुलाकर शुचिकर्म करना-बालकके मातापिता भी पंचगव्यसे स्नान करके चैत्यजुहार, पूजा, गुरुवंदन, कुलगुरु, कुलवर्गादि सभीका आहारा दिसे सत्कार-दानादिका विधि निर्दिष्ट किया गया है। विंशति स्तम्भः--नामकरण--शुचिकर्म दिन या दो-तीन दिनमें कुल वृद्धोंकी विनतीसे, योग्य मुहूर्तमें, ज्योतिषी, पंचपरमेष्ठि स्मरणपूर्वक जन्म-पत्रिका बनाकर, द्वादश लग्नका पूजन करवाकर, बालकके नामाक्षर प्रकट करें और कुल वृद्धाओंसे बालकका जाति-गुणोचित नाम प्रकट करें। जिनमंदिरमें जिनपूजा-वंदनादि करके, पूजा-द्रव्य रखकर नाम सुनायें और यति-गुरुके पास भी वंदन करकेवासक्षेप पूर्वक, कुलवृद्धाके अनुवाद रूप यति गुरुसे नाम स्थापन करवायें। अंतमें गुरुको एवं अन्यजनोंको यथोचित दानका विधान किया गया है। (171 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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