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________________ इन स्तुतिमें होनेवाली स्खलनाको अनपराध्य, अशोचनीय, क्षम्य कथित करते हैं। इस प्रकार प्रारम्भिक तीन श्लोकमें मंगलाचरण रूप परमात्माके अवर्णनीय गुण, पूर्वाचाॉके प्रति हार्दिक बहुमान और स्वयंकी निरभिमान-लघुताको प्रदर्शित करते हुए, यथावस्थित पदार्थ स्वरूप, नवतत्त्व, रत्नत्रय रूप मोक्षमार्ग, कर्मफल प्रदाता रूपमें निमित्तादि कारण, आत्माका देहव्यापीपना, जगतका अनादि-अनंतकालीन प्रवाह रूपादि प्ररूपणा करनेवाले सुमार्गगामी-सुमार्गोपदेशसे निरंतर जीवोंको कृतार्थ करनेवाले परमात्माकी कृपावर्षाकी स्तुति और सत्को असत् या असत्को सतरूप मिथ्या प्ररूपक जैनोंको निंदक या नास्तिक कहनेवाले परतीर्थियोंको कोसा है। श्री जिनेन्द्रके स्याद्वाद रूप सर्यमंडलके प्रमाणयक्त. अविरोधी वचन यक्त. सर्व दोष मुक्त-एक मात्र जैन अनेकान्तिक प्ररूपणा ही ग्राह्य और हितकारी है, जिसे पराजित करनेके लिए एक एक नय या नयाभासरूप खद्योत सर्वथा असमर्थ और अश्रद्धेय सिद्ध किया है। तदनन्तर अरिहन्त भगवंतोंके उत्कृष्टतम ऐश्वर्य और अनुपमेय यथार्थ देशना होने पर भी उन सत्योपदेशकी उपेक्षाका एक मात्र कारण-पंचमकालके प्रभावसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्मके विपाकोदयसे सत्यमार्गका आच्छादित होना और सत्यमार्ग दृष्टिगत न होने देना ही-है। अनादि मुक्त, निरंजन-निराकार सर्व व्यापी एक ही ईश्वर कभी उपदेष्टा नहीं हो सकता, उपदेष्टा हो सकता है, निरुपाधिक ज्ञानज्योति स्वरूप देहधारी उपदेशक और आप्तवचनोंके अर्थघटनमें मिथ्यात्वोदय या मंदबुद्धिसे उपद्रव कर्ताको नसीहत मिलनेसे जिनशासनकी ज्ञानलक्ष्मी अद्यावधि अघृष्या रह सकी है। राग-द्वेषादि दूषोंने प्रथमसे ही श्री जिनेश्वरके पाससे भागकर, कर्मक्षय-उपशमक्षयोपशमें अप्रवृत्त परवादीके अन्य देवोंमें सुरक्षित स्थिति प्राप्त की है। शुक्ल ध्यान लीन वीतरागकी मोहनीय कर्मजन्य करुणा न होनेसे उन्हें तीर्थ प्रवर्तनादिके लिए मोक्षगमन पश्चात् बारबार अवतारी नहीं बनना पड़ता। सृष्टिका सर्जन-विसर्जनकर्ता ईश्वर संसारक्षय करवानेवाले सदुपदेश नहीं दे सकते। जहाँ पर्यकासन-विरामयुक्त-नासाग्र पर मर्यादायुक्त स्थिर दृष्टि रूप योगनपतृ जिनमुद्रा ही नहीं वहाँ उनमें अन्य गुणोंकी संभावना कैसे हो सकती है? सम्यक् ज्ञानाधार, परमाप्तोंके परम शुद्ध स्वभावदर्शक, कुवासनापाशभंजक श्री जिनशासनको नमस्कार करते हुए दो अनुपमेय-अप्रतिम बातें- (१) जिनेश्वर द्वारा पदार्थोंका यथास्थित, यथार्थ स्वरूप वर्णन, (२) परवादियों के पदार्थ स्वरूप निरूपणकी असमंजसता-इनके लिए आश्चर्य व्यक्त करके जन्मांध (मिथ्यात्वी विशृंखल-स्वच्छंदाचारी-महा अज्ञानी-जिनेश्वरके अमूढ लक्ष्यके खंडन कर्ताओं) के लिए अंजनवैद्य तुल्य निर्मल दृष्टि सम्यकत्वी भी कोई उपचार करनेको असमर्थ है। परवादियोंको अज्ञात और जन्मजात वैरीके भी वैर शमनमें समर्थ जिनेश्वरकी देशना-भूमिके शरण अंगीकरणसे सभीका सर्व जीवोंसे वैर-विरोध खत्म हो जाता है। निष्कर्ष-आत्माको मलिनकर्ता दूषित शासन, मिथ्या होनेसे त्याज्य और सर्वदेव-सर्वधर्म समान माननेवाले मध्यस्थ भाव धरनेके घमंडयुक्त सत्मार्गकी निंदासे आत्महानि और युक्तियुक्त शास्त्र कथनमें अनुरक्त मनीषी आत्महित करते हैं। अतः श्री हेमचन्द्राचार्यजी म. अवघोषणा करते (162 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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