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________________ परंपरानुसार, जैनधर्म शाश्वत होने पर भी, और उसके सिद्धान्तों की भी शाश्वत प्रवाहिता होने पर भी वर्तमान जैन ग्रन्थ-चरम तीर्थंकर आश्रयी चरणकरणानुयोग और कथानुयोगकी भिन्नताके कारण अर्वाचीन प्ररूपणा है-वर्तमान वेदादिसे परवर्ती होने का स्वीकार किया है। तत्पश्चात् अद्यावधि ज्ञानका कब-कैसे-क्यों-कहाँ हास हुआ; कुल ज्ञानके प्रमाणसे वर्तमान ज्ञानका प्रमाण; ज्ञान कंठाग्र रखनेका कारण, मुखाग्र ज्ञानका ग्रन्थस्थ होना; अठारह लिपिका स्वरूप, प्राकृत-संस्कृतकी प्राचीनता और विद्वद् जगत्में मान्यता, संस्कृतकी उत्पत्तिप्राकृतकी महत्ता, तीन प्रकारकी प्राकृतका स्वरूप, प्राकृतज्ञान विषयक दयानंदजी की अज्ञता, 'अज्ञान तिमिर भास्कर में वर्णित चारों वेदोंकी हिंसक प्ररूपणा और 'जैन तत्त्वादर्श'में वर्णित वेदोंकी उत्पत्तिकी ओर इंगित करते हुए उन वेदोमें प्रार्थना रूप ऋचाओंका उल्लेख किया गया है। साथ ही ऋग्वेदके सातवें मंड़लमें ईश्वर स्वरूप और स्तुतिकर्ता सूक्त प्रक्षेप रूप सिद्ध किये हैं। विधिवाक्यों को ही वेद माननेवाले अनीश्वरीय मीमांसक मतका प्रतिपादन प्राचीन वेदोमें प्राप्त होनेसे ईश्वर स्वरूप-स्तुति एवं वेदान्तके अद्वितीय ब्रह्मकी प्रतिपादक श्रुतियाँ प्रक्षेप रूप स्वतः सिद्ध होती है। अंतमें “वेदसर्वज्ञ प्रणीत न होनेसे उनकी प्राचीनता या अर्वाचीनता महत्वपूर्ण नहीं हैं." ऐसा स्व अभिप्राय पेश करके कुछ वैदिक ऋचाओं के परिचयके साथ प्रथम स्तम्भ समाप्त किया है। द्वितीय स्तम्भः-इस स्तम्भमें ब्रह्मा-विष्णु-महेशके जिस स्वरूपको जैन मतावलम्बी मानते हैं - उसे लेखकश्रीने कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यजी म.सा. रचित 'महादेव स्तोत्र'के श्लोकाधारित प्ररूपित किया है। जिनके प्रशान्त, अपायापगम अतिशय आश्रयी निरुपद्रवका हेतु-अभयदातामंगल-प्रशस्त रूप होनेसे शिव; शुद्ध ज्ञानादि गुणोंसे बड़े होनेसे-महादेव; स्याद्वादके सहारे सर्व पदार्थों पर समान शासन कर्ता-ईश्वर याने महेश्वर-छाद्यस्थिक अवस्थामें इन्द्रिय दमनमहान दयापालक एवं महाज्ञान (केवलज्ञान) प्राप्त महाज्ञानी और ज्ञानरूपसे सर्व जगत् व्यापी, १८ दूषण रूप महातस्कर विजेता, कामजीत, रागादि दुर्जेय महामल्ल विजेता, निर्भय, २८ भेद युक्त महामोहनीय-कर्म-जालनाशक, महामद-लोभ त्यागी, क्षमादि उत्तम गुणधारी, पंच महाव्रतोपदेशक, महातपस्वरूप, महायोगी, महाधीर, महामौनी, महाकोमल हृदयी-क्षमा प्रदाता, अनंत वीर्यवान् , १८००० शीलांग युक्त अनंत क्षायिक चारित्रवान् , मुद्रा स्वरूपसे ही निरुपद्रवी, अव्यय स्वरूपी, पैंतीस गुणालंकृत वाणीसे सर्व जीवों के उपदेशक होनेसे 'शं'-सुखकारी, अतिशय आत्मानंदी, द्रव्यार्थिक नयसे अनादि-अनंत शक्तिवान, सापेक्ष रूपसे सादि अनंत और सादि सांत-सदोष और निर्दोष-साकार और निराकर; बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा-त्रयात्मरूप परमपद प्रापक परमात्मा ही ब्रह्मा-विष्णु-महेश्वर है। द्रव्यार्थिक नयसे एक ही मूर्तिमें स्थित और पर्यायार्थिक नयसे ज्ञानमय विष्णु-दर्शन रूप महेश्वर और चारित्र रूप ब्रह्मा-त्रिरूप एक आत्मद्रव्य स्थिति शक्य हो सकती है, लेकिन कार्य-कारण-क्रियारूप, माता-पिता-जन्म समय, स्थान, नक्षत्र-देहवर्ण-शस्त्र, देहके अंगोपांग, स्वारीके लिए वाहनादि अनेक स्वरूपोमें विलक्षण (160 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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