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________________ पूर्णब्रह्म स्वरूप, अनंत ज्ञान-दर्शन-चारित्र-सुख-शक्ति प्राप्त होकर मोक्षमहलके अतीन्द्रिय सुखास्वाद करता है। अंतमें ग्रन्थकार श्री आत्मानंदजी म.सा. अंतिम मंगल रूप शासन पति भगवान महावीर स्वामी, गौतम गणधर, आद्य पट्टाधिप सुधर्मा-स्वामी और परवर्ती अनेक प्रभावक पट्ट परंपरक पूर्वाचार्यों की गुरु प्रशस्ति एवं ग्रन्थ रचना काल-स्थान-कारण, और ग्रन्थ पठनश्रवणके लाभादिको प्ररूपित करते हुए 'अनुष्ट्रप' छंदके सड़तीस श्लोकोंसे ग्रन्थकी परि समाप्ति करते हैं। --: सम्यक्त्व शल्योद्धार :-- ग्रन्थ रचना हेतु-ग्रन्थारम्भमें मंगलाचरण करते हुए इस महत्वपूर्ण ग्रन्थ रचनाका उद्देश्य स्पष्ट किया है-यथा- “दुष्ट ढूंढकने लुप्त की हुई जिनेन्द्र मूर्तिको शास्त्रकी क्रोडों सम्यक् युक्तियों द्वारा भव्यके हृदयरूपी स्थानमें स्थापन करके, और समर्थ स्याद्वादको नमस्कार करके विश्वमें पीडित सम्यक्त्व रूपी गात्रमें व्याप्त शल्यके उद्धार हेतु इस ग्रन्थकी रचना की हैं।" ढूंढक साधु जेठमलजीकी प्रगाढ मिथ्यात्व युक्त असत्य प्ररूपणासे भरपूर 'समकित सार' पुस्तक वि.स.१९३८ में नेमचंद हीराचंद द्वारा प्रकाशित हुई; जिसके प्रत्युत्तर रूप-बिना किस. राग-द्वेषकी परिणति, केवल भव्यजीवों को निर्मल सम्यक्त्वके स्वरूपके दर्शन करने और परोपकार हेतु, इस ग्रन्थकी रचना सं.१९४० में की गई और सं.१९४१ में गुजराती भाषामें एवं सं.१९५९ में श्री आत्मानंद जैन सभा-पंजाब; तथा सं.१९६२ में जैन आत्मानंद पुस्तक प्रचार मंडल-दिल्ही, द्वारा हिन्दीमें प्रगट की गई। इस ग्रन्थमें 'समकित सार' निहित कुल छियालीस प्रश्नोत्तरके प्रत्युत्तर दिये गये है।। _ 'समाकित सार' के प्रश्नोत्तरके स्वरूपसे ही किसीभी सत्यवादी मूर्तिपूजक जैनका खून खौल उठना स्वाभाविक था; अतः उन प्रश्नोंत्तरके लिए, सत्यकी प्रतिमूर्ति आचार्य प्रवरश्रीकी कलम कैसे चूप रह सकती थी? मानो, मजबूरन मुखरित हो उठी। उनकी लेखीनीने ढूंढक मतको वेश्या या दासीपुत्र-तुल्य सिद्ध करके सभी विपरित प्ररूपणाओंका आगम या पूर्वाचार्य रचित ग्रन्थाधारित प्रत्युत्तर देने का भरसक प्रयत्न किया हैं। प्रथम प्रश्नान्तर्गत-ढूंढक मतोत्पत्ति-परम्परा-साधुवेश-दीक्षाप्रदानादि अनेक आचार; साधु समाचारी और दैनिक व्यवहार; परम्परागत चतुर्विध संघ संलग्न तपाराधना-साधना-विविध क्रियानुष्ठान रूप उपासना-सात क्षेत्र-व्यवस्था आदि अनेक प्रकारके आचार विचारोंकी कपोल-कल्पित प्ररूपणाका मुंहतोड़ प्रत्युत्तर देते हुए, सत्य प्ररूपणाका शास्त्राधारित प्रमाणोंसे करणीय कृत्यों का स्वीकार भी किया गया है। तत्पश्चात् ढूंढक साधु आचरित मनःकल्पित और शास्त्र-विरुद्ध-मिथ्याचार रूप विचित्र करणीको प्रदर्शित करनेवाले १२८ प्रश्नों-आचारों के लिए ललकारते हुए और उन सभी आचरणों का शास्त्राधारित प्रत्युत्तर मांगते हुए सर्व संवेगी मुनियों की सर्वत्र एक समान समाचारीको आगम प्रमाणित और ढूंढक साधुओंकी मनमानी स्वच्छंदता युक्त भिन्नभिन्न समाचारीको (152) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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