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________________ वेद रचना--मनुस्मृति आदिके रचनाकालमें जैन एवं बौद्ध धर्मके अति विशाल क्षेत्रमें प्रसार के कारण और “अग्नि, वायु, सूर्यादि देव नहीं के वल पदार्थ होने से उनकी पूजा व्यर्थ है" ऐसी सांख्य मतके शास्त्रों की प्ररूपणासे प्रजामें वैदिक धर्मके प्रति नफ़रत और अश्रद्धा उत्पन्न हुई। फलतः जनसमूहमें श्रद्धा संपादनके लिए उपनिषदकी रचना की गई लेकिन अंततः यज्ञ विधानों के स्थान पर पूजाविधान और उपनिषदके अद्वैत ब्रह्मके बदले भक्तिमार्गीय द्वैत मतकी स्थापना हुईं। हिंसक याज्ञिकी क्रियाओं का प्रचंड रूपसे खंडन किया गया, परिणामतः वेदधर्म लुप्त प्रायः हो गया। यही कारण है कि प्रजा की आस्था वेदके प्रति मोडने के लिए ब्राह्मणों ने पुराणों में मनमानी तोड़जोड़ की और भ्रमजाल बिछाया गया कि, प्राचीनकालीन ऋषि पशु मारते थे और उन्हें पुनः जीवित करने का सामर्थ्य रखते थे। इस प्रकार ऋषि प्रणीत आर्ष ग्रन्थ और निबन्धादि पौरुषेय ग्रन्थ-स्मृति-पुराण-इतिहास-काव्यादिकी रचनायें पौरुषेय सिद्ध हुई। वैदिक इतिहास-भ. आदिनाथजीने इस अवसर्पिणी कालमें जैनधर्म प्रवर्तीत किया। तत्पश्चात् उनके पौत्र मरिचिके शिष्य कपिलने 'षष्ठी तंत्र' रचकर जो उपदेश दिया वही परवर्ती शंख आचार्यके नामसे सांख्यमतके रूपमें प्रसिद्ध हुआ। कालांतरसे जैनधर्म और चार आर्यवेदोंका व्यवच्छेद और शांडिल्य ब्राह्मण रूपधारी महाकालासुर और पर्वत द्वारा महाहिंसक यज्ञ और अन्य ब्राह्मणाभासों द्वारा चार अनार्य वेदोंकी रचना हुई। तदनन्तर व्यासजीने ऋषियोंसे श्रुतियोंका संकलन करके चार वेद रचे। याज्ञवल्क्यकी वैशंपायनादिसे लड़ाई होनेसे नया शुक्ल यजुर्वेद रचा गया। जैमिनी, शौनकऋषि, कात्यायनादि अनके ऋषि-आचार्यादिने मीमांसक, ऋग्विधान, सर्वानुक्रम आदि सूत्र रचे; इन्हीं सूत्रोंसे मनु-याज्ञवल्क्यादिने स्मृतियाँ रची वेदके छ अंग-मुख-व्याकरण, नेत्र-ज्योतिष, नाक-शिक्षा, हाथ-सूत्र, पैर-छंद और कान-निरुक्त माने जाते हैं। वैदिक ऋषियों को सर्वज्ञ और उनके विरोधीको नास्तिक-वेद बाह्य-राक्षस आदि उपनाम दे ने परभी जैनधर्मकी प्रभाव वृद्धिसे प्रजामें ब्रह्म जिज्ञासा उत्पन्न होने से उपनिषद रचे गये। लेकिन उससे भी असंतुष्ट नैयायिक-वैशेषिकादि एक ही ईश्वरको मानने वाले मत चले, जिन्होंने शम-दम-श्रद्धा-समाधि आदि धर्म साधनसे प्रजामें आस्था दृढ़ बनवायी। ज्ञानको ही मोक्षका मुख्य साधन मानकर तीर्थयात्रा-कर्मकांडादिका विरोध किया। तत्पश्चात् जैनधर्म राज्याश्रित बननेसे उसकी प्रभाव वृद्धि के कारण उपरोक्त सभी मत लुप्त हुए। पुनः शंकराचार्य ने उसका उद्धार करके अद्वैतपंथ स्थापित किया। उसके खंडनके लिए नूतन उपनिषदों की रचना हुई। लेकिन थोड़े ही समयमें पुराण-उपपुराणसे प्रतिपादित भक्तिमार्ग प्रचलित हुआ, जिसके अंतर्गत दो संप्रदाय-शैव और चार प्रकारके वैष्णव; ऐसे ही अन्य अनेक प्रकार की उपासनाओंके-शिव, विष्णु, गणपति, राधाकृष्ण, राम, हनुमानादि अनेक संप्रदाय चल पडें; जो आपसमें भी अनेक विरोधों के कारण खंडन-मंडन करते रहें; अतः उनके अपने भिन्न भिन्न शास्त्र, पहचान चिह्नक्रियायें आदि अस्तित्वमें आयें। इनके झगडोंसे त्रस्त-व्याकुल कबीर, नानक, दादू, उदासी आदि मूर्तिपूजा विरोधी 146 Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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