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________________ फल, जापके प्रकार-विधि और फलोपलब्धि-रात्री स्वप्नों के कारण और दिवा स्वप्न-रात्री स्वप्नके शुभाशुभ फल प्राप्ति -सचित्ताचित्त स्वरूप-काल मर्यादा-द्विदल स्वरूप-द्वादश व्रत भंगका स्वरूप और विपाक-अभक्ष्यका स्वरूप-निरवद्य आहार स्वरूप-प्रत्याख्यान स्वरूप, विधि एवं फलनिर्देश, आहार्य-अनाहारी द्रव्य स्वरूप-सम्मझिम पंचेन्द्रिय जीवोत्पत्तिके चौदह स्थान-जिनपूजाकी सात प्रकारसे शुद्धि-द्रव्य और भावपूजाकी विधि-दोनों के दोभेद-स्वरूप, दिनगत सात बार चैत्यचंदनका स्वरूप-गृहचैत्य एवं श्रीसंघ चैत्यकी निर्माण विधि-शुद्धता, पवित्रता, जीर्णोद्धारादिकी आवश्यकताजिनपूजा अविधिसे अथवा न करनेसे प्रायश्चित्त विधि-उत्कृष्ट द्रव्य और भावपूजाका फल पांच प्रकारसे जिनभक्ति स्वरूप-जिनभुवनकी और गुरु के प्रति आशातनाका स्वरूप-चार प्रकारके द्रव्य(धन) की वृद्धि-रक्षा-एवं व्यवस्था स्वरूप-गुरुवंदन विधि और प्रकार-गुरू भक्ति-वैयावृत्यका स्वरूप-व्यापार शुद्धि-द्रव्योपार्जनके प्रकार-पाप पुण्यके अनुबंधके प्रकार और विपाक-औचित्यपूर्ण व्यवहारका स्वरूप-दानके प्रकार पंचदूषण और पंचभूषण एवं फल-सुपात्रके प्रकार-भोजन विधि-आरोग्य चिंता आदिका 'श्राद्धविधि' तथा 'श्रावककौमुदी'के आधार पर विवरण करके बारहव्रतके समापनके साथ इस परिच्छेदकी भी परिसमाप्ति की गई है। दसम परिच्छेदः- धर्मतत्त्व (स. चारित्रान्तर्गत) गृहस्थधर्म निरूपण--- दिन कृत्य वर्णन पश्चात् श्रावक योग्य शेष कर्तव्योंका इस परिच्छेदमें विवेचन किया गया है। रात्रीकृत्य-संध्या समय पौषधशालामें प्रतिक्रमण-स्वाध्याय-गुर्वादिकी भक्ति वैयावृत्त्य-बारह व्रतोंका प्रयत्नपूर्वक पालन-चितवन-सात क्षेत्रो में दान-पारिवारिकजनों के साथ धर्मचर्चानन्तर प्रथम प्रहर व्यतीत होने पर हितकारी शय्या पर अल्प निंद्रा लेने की प्रेरणा दी है। (यहाँ शयनविधिशयन एवं शैय्या स्वरूप, ब्रह्मचर्य पालनके लाभ, कामवासना आदि अनेक अशुभ भाव जीतने के उपाय, भवस्थिति तथा धर्ममनोरथ भावना, भवांतर में धर्मप्राप्ति और परंपरासे मोक्ष प्राप्तिकी अभिलाषा आदिकी चिंतवनाका स्वरूप वर्णन किया है।) पर्वकृत्य-एक मासमें पाँच अथवा बारह पर्व तिथि और वर्ष में छ अट्ठाइयाँ, तीर्थंकरों की पाँचो कल्याणक तिथियाँ, ज्ञानपंचमी, मौन एकादशी, अक्षय तृतीया आदि पर्व दिनों में पौषधप्रतिक्रमण-सामायिक या देशावकाशिक आदि व्रत अंगीकार; ब्रह्मचर्य पालन-आरंभ समारंभ वर्जन-विशिष्ट तप-सुपात्र दानः देव-गुरुकी विशिष्ट प्रकारसे (अष्ट प्रकारी) पूजा-भक्ति-वैयावच्चादि आराधना करनेसे पर्व प्रभावके कारण अधर्म-अशुभ भावका धर्मादि शुभ भावोमें परिणमन होता है, जिससे उन तिथियोंमें मनके शुभ परिणामों के कारण परभवायुष्य-बंध भी शुभगतिका होता है-आत्मा की सद्गति होती है। अजैनों के पर्व परभाव रमणताके कारण अशुभ बंधका कारण होता है, जबकि जैन पर्वाराधना-साधना कर्मनिर्जरा करवाती है। चतुर्मासिक कृत्य-वर्षाकालीन चातुर्मासिक समयमें भी देशविरति या अविरति श्रावकोंको विशिष्ट आराधनासे आत्मिक गुण पुष्टि और विराधना निवारणसे आत्म कल्याण करने की प्रेरणा दी है-यथा-बारह व्रत पालन-स्नात्र महोत्सव, अपूर्व (नूतन) ज्ञान प्राप्ति; रत्नत्रयीकी विशिष्ट आराधना; (142) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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