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________________ है।" इस ग्रन्थराजको प्रायः हम जैन धर्मकी गीता' कह सकते हैं, जिनमें तत्वत्रयीके प्रायः संपूर्ण सारको सबल एवं सफल रूपमें समाविष्ट किया है। प्रथम परिच्छेद :- सर्व प्रथम देवतत्त्वकी प्ररूपणा की गई है। जैन धर्मानुसार, नामोल्लेख एवं विशिष्ट गुणाधारित सुदेवके स्वरूपकी प्ररूपणा करते हुए उन अरिहंत-वीतराग-परमेश्वरकी बारह गुणयुक्तता, अठारह दोषसे मुक्तता, चौतीस अतिशय, पैंतीस वाणीसे अंलकृतता दर्शायी है। श्री हेमचंद्राचार्यजी म. कृत 'अभिधान चिंतामणी' ग्रन्थाधारित उनके प्रमुख गुणाश्रित चौबीस नाम वर्णन करके गत उत्सर्पिणीकी अतीत चौबीसीके चौबीस तीर्थंकरों के नाम और वर्तमान चौबीसीके तीर्थंकरोंके सामान्य एवं विशेषार्थ युक्त नामांकन करके अपनी औत्पातिकी बुद्धिका चमकार दिखाया है। तदनंतर अरिहंतोंके मातापिताके नाम (सार्थ) कुल-वर्ण-लांछन आदि बावन द्वार युक्त तालिकासे वर्तमान चौबीसीके चौबीस तीर्थंकरोंका परिचय दिया गया है। अंतमें वर्तमान चौबीसीके नव से पंद्रह तीर्थंकरोंके पश्चात् द्वादशांगी और चतुर्विध संघ रूप जिनशासनका व्यवच्छेद, उन विरहकालमें उद्भवित अनेक मत-मतांतर और उनके कपोलकल्पित शास्त्र (नूतन-वेद), मूल आर्यवेदोंका व्यवच्छेद-आदि अनेक तथ्यों के विवरणके साथ ही प्रथम परिच्छेदका समापन किया गया है। द्वितीय परिच्छेदः- इस परिच्छेदमें बालजीवों द्वारा अज्ञान जन्य बुद्धिसे, स्वर्गलोकाके देवोंकी भगवान न होने परभी परमेश्वरके गुणोंका आरोपण करके उन्हें देवरूप मान्य 'कुदेव के स्वरूपका वर्णन किया है। इनका स्वरूप 'सुदेव से विपरित-अठारह दोष सहित एवं बारह गुण रहित-देव, कुदेव माने जाते हैं। कुदेवका बाह्य स्वरूप---इन रागी-द्वेषी-असर्वज्ञ देवोंका विशिष्ट बाह्य लक्षण स्वरूप इस प्रकार है। अपने पार्श्वमें रागका प्रतीक स्त्री, वैर-विरोधादिसे भयनिवारक शस्त्र, इष्ट प्राप्त्यार्थ जपमाला, असर्वज्ञता सूचक अक्षसूत्र, कमंडल, भस्म लगाना, धूणी तापना, नर्तनादि कुचेष्टा करना भांग-अफिम, मदिरा, मांसादिका सेवन, पशुसवारी रूप परपीडन करना, नाचगान हास्य-रुदनादिमें आसक्त, रिझनेपर आशीर्वाद और खीझने पर अभिशाप देना आदि युक्त (स्वयं दुष्टभावके बंधनमें फंसे होने के कारण) ये कु देव, अन्यों को उपरोक्त दुष्ट भावसे मुक्त, कर्मरहित, मोक्षपद-प्रापक बनाकर निर्वाण-पद प्राप्ति, कैसे करा सकते है? ईश्वरकी ईश्वरताकी सिद्धि-तत्पश्चात् “सर्वज्ञ, वीतराग, अशरीरी, ईश्वर-जगत्कर्ता, विश्व रचयिता या विश्व नियंता, कर्म फल प्रदाता, एक अद्वैत ब्रह्म स्वरूप, विश्व व्यापक, सर्व शक्तिमान, वेदरचयिता नहीं हो सकता और उनके वैसे स्वरूप माननेसे ईश्वरको अनेक कलंक प्राप्त होते हैं"-इस विषयको अनेकानेक प्रमाणिक-ठोस-युक्तियुक्त तर्कों द्वारा विश्लेषित करके सिद्ध किया कि, निर्विकार, निरंजन, कर्म निवृत्त, कतकत्य, ईश्वरने न कभी सष्टि रचना की थी-न कभी करेगा -न सांप्रत सष्टि भी ईश्वरकी रचना है। सृष्टिके जीव अनादिकालसे स्वकर्मानुसार लब्धि-शक्ति-बुद्धि प्राप्त करते हैं, और प्रवाहित संसारके प्रवाह पर डोलते-खेलते-भ्रमण करते रहते हैं एवं सर्वथा कर्मक्षय पर्यंत अनंतकालमें ऐसे ही जीवनक्रम-जन्म मरण-करते रहेगें जैसे वर्तमानमें हैं। अतएव ईश्वरको जगत्कर्ता (133) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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