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________________ आपके जीवनमें ऐसे अनेक प्रसंग घटित हुए, जो आपके जीवनमें विद्या ददाति विनयम्' उक्ति चरितार्थ करनेवाले और नयन युग्मोंको विस्मित करनेवाले हैं। महातपस्वी-अपूर्व त्यागमूर्ति, शास्त्रानुसारी शुद्ध संयम यात्राके यात्री श्री आत्मारामजी म. बाह्याभ्यंतर त्याग युक्त उग्र तपस्वी थे। सर्व परिग्रह परत्व ममता-मोह या मूर्छारूप बाह्य त्याग और राग-द्वेषादि कषाय रूप आभ्यंतर त्यागसे सर्वांग संयमी, विकट कष्ट-उग्र परिसह या भयंकर उपसर्गमें भी धैर्य और क्षमा धारण करके निरतिचार-रत्नत्रयी-स. दर्शन, स. ज्ञान, स. चारित्रकी उत्कृष्ट आराधनामें लयलीन रहना उनकी महानताका मापदंड था। उज्जवल नयनों मेंसे झलकती तपश्वर्याकी ज्योति तपोमय मुखारविंदको अधिक प्रकाशित करती थी। बाह्याभ्यंतर तपकी साक्षात् प्रतिमा निर्मल आत्मामें उग्रता या क्रोधकी अलोपतासे मनोहर और देदीप्यमान-प्रसन्न वदनकमल शोभायमान होता था। रसनेन्द्रियको आपने इस सीमा तक जीत लिया था कि बिना स्वाद या जिह्वा लोलुपताके-एकही पात्र में सभी भोज्य सामग्री मिलाकर, जीवन गुजाराभर आहारग्रहण कर लेते थे। यदि आहार न मिला तो भी 'तपोवृद्धि' मानकर नित्यक्रममें लग जाते थे। कईंबार आहार-पानीके बिना ही दिन पर दिन निकल जाने पर भी कभी ग्लानि महसूस नहीं की- “गोड़वाड़ के मरुस्थल और भीषण मार्गों से होते हुए पंजाबकी ओर पैदल यात्रा करना साहसी, तपस्वी और सहनशील साधुओं के ही सामर्थ्य में हैं। कईंवार आपको व आपके साथ साधुओंको दो या तीन उपवासकी तपश्चर्याके साथ विहार करना पडताथा.........कईंवार मीलों तक पानी या आबादीका निशान भी नहीं दिखता था और आहारपानीका कष्ट सहन करना पडता था।" १०८ सच्चे त्याग और उग्र तपके बिना आप जैसी ज्वलंत शासन प्रभावना और धर्मप्रचारकी शक्यता कभी नहीं हो पाती। विशुद्ध नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-चुंबकीय और चमत्कारिक अध्यात्म शक्तिके स्वामी, विश्ववंद्य, निर्मलनैष्ठिक-आजन्म भीष्म ब्रह्मचर्यके प्रतापी किरणोंसे देदीप्यमान वदन कमलके दर्शन मात्रसे या सान्निध्यके प्रभावसे आधि-व्याधि-उपाधि, तन-मनका मालिन्य या रोग-शोकादि कष्ट दूर भाग जाते थे। इस महान ज्योतिर्धर के अंग-प्रत्यंग-उपांगसे फैलनेवाले ब्रह्मतेजकी प्रतापी रश्मियोंका प्रभाव, आपकी जलद-सी गंभीर गिरामेंभी झलकता था “श्री आत्मारामजी म.के भव्य और मनोहर शरीरके रोमरोम और अणु-अणुसे ब्रह्मचर्यकी पवित्र सुवास फैलती थी। अखंड ब्रह्मचर्यके उत्तम प्रभावसे ही वे विश्वमें वीतरागका शुद्ध सनातन मार्ग प्रसारित कर सकें। १०९ ।। दूरदर्शी आचार्य---समाजकी नाड़ परख कर उसे हितकारी राहका निर्देशन करनेवाले युग-प्रवर्तक और नवयुग निर्माताके दूरदर्शीपनेका दर्शन हमें होता है जब जैन समाजकी ओरसे श्री वीरचंदजी गांधीके धर्म प्रचार हेतु विदेश गमन पर आक्रोश व्यक्त करते हुए उन्हें जैन संघसे बहिष्कृत करनेका निर्णय होने जा रहा था, तब आपने चेतावनी के सूरसे ललकारा था- “याद रखना, आज धर्मके लिए श्रीयुत गांधी समुद्र पार ‘चिकागो विश्वधर्म परिषद में गये थे। मगर शीघ्र ही एक समय थोड़े ही अरसेमें आवेगा कि अपने मोज़-शौकके लिए, ऐश-आरामके वास्ते तथा व्यापार करने, लोग समुद्र पार-विलायत आदि देशामें जायेंगें । उस समय किन किनको बाहर करोगे ?"११० -जो आज शतप्रतिशत सत्य सिद्ध हो रहा है। परंपरागत रूढ़ियों के परिवर्तनके लिए (76) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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