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________________ जयन्तु वितरागाः श्री आत्म-वल्लभ-समुद्र सद्गुरुभ्यो नमः Jain Education International मागी विजय इन्द्रदिन्न सूरि शेठ मोतिशा रिलिजियस अॅन्ड चॅरिटीबल ट्रस्ट शेठ मोतिशा आदेशरजी जैन मंदिर २७, लव लेन (मोतिशा लेन) भायखला, मुंबई ४०० ०२७ फोन न. ३७२०४६१, ३७१०७९२ ता. १३३ (१ R? आशिवचन ज्ञानम् विद्यादाय धनम् मदाय शक्ति परेषाम् पररामनाम । क्लस्पेसा बिथरल मेसत ज्ञान शक्ति, धन शक्ति प्रत्येक मनुष्यों को सभा महानाथ चे रक्षणाय 11911 शानिक शक्ति 5 तिम शक्तियों मिली है। उसमें दिनों शक्तिओसज्जनों उपयोग में लगाते है और दुर्जन पुरुषों हुई जिसमें सत् वाद विवाह में पड़कर लगाते हैं। ज्ञान से सबके साथ लड़ना भर अनुया वैसे कामों में अपनी शक्ति लगाने से ज्ञान लाने वाले क काम करता है। पर कर सद्दू-बला करे के ज्ञान लाग्ने बला है दुर्थुमिक करे तो नवाने वाला भी बनता है। 30 हमसे दिन द्र‌वियों का विद्वान का काम कर शकते है जैसे तिर्थकरों ने वार्षिदान देकर सारे जगत् मान का जहान किया हुए श्योंके क्रिया ३ अरब र क्रोड ८० लाख सोना महोपका दान दिया और तो मागें वे प्रभुने दिया हादी की इच्छासे आया छ्थी हे दिया घर की इच्छा से आया घर बने इतनी सोना महोरे देहि वैसे आत्मधन उत्तन्यधिक धन ज्ञान, दर्शन और चाहिए उनको स्वयम्‌ को कहा करनी है। तब आत्मिक धन की वाहने वाला बनता है होल साहिधिक धन मामने शरीर की शक्ति द्वारा मारना फाइना विना द्वारा कर्म बन्धन होता है परन्तु ज्ञान ध्यान तपस्याहारा शादिक शाखा शुद्धिकाहा होता है वैसे ही साहब श्री फिरणयशा श्रीजी संयम लेकर गुरुदेषो को बफादार ग्रहण क देवों का निधन पर किताब लिखते अपनी शक्ति इरान ध्यान, तय स्वाधना में जिवन उज्जवल बनाया है और पुस्तक की रचनायें अपना समय लगाकर गुरु गुणों गाकर लिए चडी की ए सार्थक मानता हूँ आचार्य विजय छह हिल्स्स्सूत्रिका अनुछेदना सुनाता लगाकर में STREA For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002551
Book TitleSatya Dipak ki Jwalant Jyot
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages248
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size22 MB
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