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________________ आगे फरमाते हैं- “डर नर पाप करी देत गुरु सिख खरी, मान लो ए, हित धरी, जनम विहातु है। जोवन न नित रहे बाग गुल जाल महे, आतम आनंद चहे, रामा गीत गातु है। . बके परनिंदा जेति तके पर रामा तेती थके पुन्य सेती फेर मूढ़ मुसकातु है। अरे नर बोरे! तोकुं कहुं रे सचेत होरे पिंजरेकुं तोरे देख, पंखी उड जातु है।" ५० अखूट और अनंत श्रद्धासे अनादिके भवभ्रमणको रोकनेके लिए और सर्व कर्मक्षय करनेके लिए भवत्राता और मोक्षदाता-सर्वकर्मक्षायक-अनाथोंके नाथको दीनतासे समग्रतया शरणागत बनकर करबद्ध प्रार्थना करते हुए गाते हैं “त्राता धाता मोक्ष दाता, करता अनंत शाता; वीर, धीर, गुण गाता तारो अब चेरेको। तुम है महान मुनि, नाथन के नाथ गुणी; से, निशदिन पुनी, जानो नाथ देरेको। जैसो रूप आप धरो, तेसो मुज दान करो; अंतर न कुछ करो, फेर मोह चेरेको। आतम सरण पर्यो, करतो अरज खरो; तेरे बिन नाथ कोन, मेटे भव फेरेको?" " इस प्रकार जैन कर्मविज्ञानको काव्यमय रूप देकर, उपदेशात्मक शैलीमें, इस संसारसे मुक्त होनेके लिए अनेक युक्तियाँ सरल मुक्तक एवं प्रगीतोमें प्रस्तुत की हैं। ज्ञानके संपूर्ण स्वरूप एवं केवली भगवंतकी ज्ञान-ज्ञेयकी प्ररूपणाको कवि श्रेष्ठ श्री 'शुभवीर ने श्री आदीश्वर भगवंतकी स्तुतिमें इस प्रकार स्तवित किया है “ऋषभ जिनेश्वर केवल पामी, रयण सिंहासन ठायाजी, ___अनभिलप्य अभिलप्य अनंता, भाग अनंत उच्चरायाजी" अर्थात् सर्वज्ञ वीतराग भगवंत भी वचनयोग और आयुष्य मर्यादाके कारण अनंतानंत द्रव्य-पदार्थ और भावोंसे ज्ञात होनेके बावजूद उस ज्ञानके केवल अनंतवें भागका ही उच्चारण अपनी आजीवन देशनाधारासे प्रवाहित कर सकते हैं, उसके अनंतवें भागको गणधर भगवंत धारण कर सकते है और धारण किये भावोंके अनंतवें भागको ही सूत्र-रचनारूप दे सकते हैं। “तास अनंतमें भागे धारी, भाग अनंता सूत्रेजी....." “गणधर रचियां आगम पूजी, करिये जन्म पवित्रजी ।" यहाँ विचारणीय यह है कि ऐसे अनंतानंत ज्ञान-रत्नाकरमें कौनसे विषय-तथ्य-स्वरूपादि भावरत्नोंका अभाव हो सकता है! जीवन स्पर्शी सम्पूर्ण ज्ञानसे परिव्याप्त जैन वाङ्मयमें 'उत्पाद-व्यय-धौव्य युक्त सत्' पदार्थों-जीवाजीवादि षटद्रव्योंका अद्वितीय एवं असीम विस्तार युक्त विवरण प्राप्त होता है। जिनका कविराजने अपने काव्योमें भी स्थान-स्थान पर निरूपण किया है। साथहीसाथ जीवराशिका भवभ्रमण जहाँ होता है उस चौदह राजलोकके स्वरूपाकार आदिका भी जो वर्णन किया है वह जैन भौगोलिक प्ररूपणाका परिचायक है। “भवि लोक स्वरूप समर रे.... कटि धरी हाथ चरण विस्तारी, नर आकृति चित धर रे। षड् द्रव्य पूरण लोक समर ले, उपजत बिनसत थिर रे....भवि.... त्रिभुवन व्यापक लोक विराजे, पृथ्वी सात सुधर रे। घनोदधि घन तनु वात वलि कलशे, चार ओर ही थिर रे....भवि.... वेत्रासन समो लोक अधो है, झल्लरी निभ मध्यवर रे।। मुरजाकार ही ऊर्ध्वलोक है, भाखे जग जिनवर रे....भवि...." १२ । (जैन भूगोल अनुसार वर्तमान विश्व, चौदहराज रूप सिंधुमें एक बिंदु जितना स्थान रखता है। इनका विशेष-सचित्र-परिचय इस शोध प्रबंधौ ‘पर्व प्रथममें' करवाया गया है और जैन शास्त्र-ग्रन्थों क्षेत्र समास, लोक प्रकाशादिसे भी प्राप्त हो सकता है।) इस प्रकार यहाँ आचार्य प्रवरश्रीके पद्योमें हृदय तंत्रीके भावोंकाः भरपूर भक्ति, आध्यात्मिक गांभीर्य (59) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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