SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 77
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मोड़ देकर प्रस्तुत किया है, वह अपने आपमें अनूठी चमत्कृति पैदा करनेवाली पेशकश है। इनके एक-एक वाद्य-वीणा, तुण, तबली-आदिने सजीव बनकर परमेश्वरके जीवनकार्य, निर्मल-वचन और उनसे आविर्भूत उज्ज्वल यशके प्रति जो हृदयोद्गार व्यक्त किये हैं, किसी भी व्यक्तिको प्राभाविक प्रसन्नतासे भर देनेके लिए सक्षम हैं। "भवि नंदो जिणंद जस वरणीने.... वीण कहे जग तुं घिरनंदी, धन धन जग तुम करणीने।....भवि.... तुं जगनंदी, आनंदकंदी, तबली कहे गुण वरणीने। ....भवि.... निर्मल ज्ञान वचन मुख साचे, तुण कहै दुःख हरणीने।....भवि.... कुमति पंथ सब छिनकमें नासे, जिनशासन उद्धरणीने....भवि.... मंगल दीपक आरति करता, आतम चित्त शुभ भरणीने....भवि...." सर्वदर्शनोमें भवभ्रमणको अनिष्टकारी माना है, लेकिन जैनदर्शनने तो उसे असंख्य भंवरोंका गहन गह्वर दर्शाया है जो आत्माकी तबाही कर देता है; जहाँ शाश्वत मुक्ति सुखके तो आसार तक नसीब नहीं होते। अनादिकालके अनंत भवसमूहको महासमुद्र रूपमें वर्णित करके वह भवसायरका, स्वरूप कई बार कई ग्रन्थोंमें अनेक सुज्ञ-जनोंने स्पष्ट करनेका प्रयास किया है। इसी भयानक भव समुद्रको तादृशरूपक स्वरूपमें रंगीन कल्पना प्रवाहोंकी विशाल गहराइयोंसे चित्रित करके जीवंत किया है-उत्तम काव्यप्रणेता श्रीआत्मानंदजी म.सा.ने अपने काव्यमें। यह चित्रालेखन वाकई मानवजीवन-रहस्योंका एक सात्त्विक प्रभावोत्पादक रूप प्रस्तुत करता है “भवोदधि पार कीजोजी.... अजि तुम सुणियोजी, करुणानाथ, भवोदधि पार कीजोजी.... मोह सायरकी गहरी धारा, भमर फिरत गत चार मंझारा; मंझधार अटकी मोरी नैया, अब प्रभु पार कीजोजी....अजि तुम.... चार कषाय बड़वानल जामें, रागद्वेष मगरादिक नामें; कुगुरु कुघाट पही मोरी नैया, वहीं थाम लीजोजी....अजि तुम.... विषे इंद्री वेला अति भारी, काम भुजंग उठे भयकारी । मन तरंग वेग. मोरी नैया. अब प्रभु का लीजोजी ..... अजि..... तुम ..... पाप पुण्य दोऊ तस्कर धेर्यो ............मैं चेर्यो प्रभु तुम गुण केरो।" इस प्रकार जलनिधिमें तस्करों एवं हिंसक प्राणियोंसे घिरे, जीवनके लिए छटपटाते हुए डूबनेवालोंकी नज़रोंमें तारणहार खेवैयाकी तमन्ना रहती है, जिसके लिए गोते खाते खाते भी वह तरसता है-ढूंढता है, किसी सहारेको-जो उसे पार पहुँचाये। लेकिन अपार पारावारका पार पानेके लिए जहाँ कहीं भी निगाह फैलाता है, उसे निराशा और हताशा ही नज़र आती है; तब श्रद्धेय गुरुदेव इंगित करते हैं अशरणके शरण, अनाथोंकेनाथ, तरणतारण मल्लाह श्री अरिहंत परमात्माकी ओर, और उनकी दुहाई देते हैं: “तुम बिन कौन सहाई मेरो, भवसिन्धु पार कीजोजी....अजि तुम....१६८ आपके अंतस्तलकी अतलस्पर्शी गहराईसे प्रस्फुटित होनेवाले मर्मस्पर्शी प्रत्येक पद्योमें ऐसी रहस्यमयता छिपी है कि कैसे भी भाव या तथ्ययुक्त कृतिका समापन आत्मानंद, आत्मानुभव, चिद्घनानंद आदिकी प्राप्तिकी प्रसन्नता या प्राप्त करनेकी तड़पमें वेधक शैलीमें प्रस्तुत होता है। यही कारण है कि इतने सालोंके व्यतीत हो जाने पर भी उनकी रचनाओमें भावोंकी नूतनता-मनमोहकता-आकर्षकताके चमकार अद्यावधि प्राप्त होते हैं या अद्यापि ताजगीयुक्त खिले पुष्प परिमल-से मघमघायमान हो रहे हैं। श्री रागमें प्रस्तुत रचना “जिन गुण गावत सुरसुंदरी.... (52) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy