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________________ श्रीआत्मानंदजीके चेतनजीको (जो “जार मार ममता दृढंगन राग-स्निग्ध अभ्यंग" करनेवाले, “राग-द्वेषकी रखवाली" से रक्षित “सघन भववनकी जंजीरोमें" जकड़े हुए “वामारस (स्त्री)के पास (बंधन)” में फंसे, “मोहकर्मकी जड़ो”से जकड़े हुए, “क्रोध-मान-ममता की चहुंकन (चौटे) पर चढनेवाले हैं उनको) सचेत कर दिया है और “जिनेश्वरजीका चेरा" बनाकर सावधान कर दिया है-यथा “पूरण ब्रह्म जिनेन्द्रकी वाणी, करणरंध्रमें शब्द पर्यो रे...... अनुभवरस भरी छिनको उड़यो, आतमराम आनंद भर्यो रे... अब क्यूं पास परो मन हंसा..... तुम चेरे जिननाथ खरे रे..."३५. यही कारण है कि श्रीआत्मानंदजीके चेतनजीको यह दृढ़ आस्था हो गई है कि “जब कुमति टरे और सुमति वरे... तुं और नहीं मैं और नहीं...” अतः कुमतिके कारण स्वयंके जो हाल-हवाल हुए है उससे वे “प्रीति शुं भांगी रे कुमति....” कुमतिका त्याग करते हैं, और आत्म हितकारी सुमतिसे प्रीत जोड़ते हैं- “प्रीति लागी रे सुमति शुं प्रीति लागी...... सोऽहं सोऽहं रटि रटना रे, छांडयो परगुन रूप, नट ज्यूं सांग उतारीने रे, प्रगट्यो आतम भूप..... ४० जैन दर्शनमें अगम-निगमके-दार्शनिक या कर्मविज्ञानादिके रहस्योंको संख्यावाचक प्रतीकों द्वारा वर्णित करनेकी परम्परा दृष्टिगोचर होती है । इस परंपराका इन दोनों कवीश्वरोंने अनेक स्थानों पर उपयोग किया है-यथा-सुबुद्धि और कुबुद्धि द्वारा खेली जानेवाली चतुर्गति चौपटका संख्यावाचक प्रतीकों द्वारा श्री आनंदघनजीने जो चित्रण किया है वह अद्भुत है । “पाँच तले है दुआ भाई, छक्का तले है एका सब मिल होत बराबर लेखा, यह विवेक गिनवेका"४१ अर्थात् कुबुद्धि द्वारा-हिंसा, मृषा, स्तेय, मैथुन, परिग्रह रूप-पांच आश्रवके नीचे करण-करावण रूप दो दाने अर्थात् सात मिलकर और छजीव निकायके मर्दनरूप एक असंयमसे (दोनों ओरसे समानरूप से) सात गतिमें-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, सम्मूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रि, गर्भज तिर्यंच पंचेन्द्रिय, नरक, मनुष्य और देवपरिभ्रमण करना पड़ता है, जो चेतनकी हार रूप है । जबकि पांच इन्द्रिय और राग-द्वेष-दोके विजयसे एवं काम-क्रोध-लोभ-मोह-मद-मत्सर रूप षडरिपु पर विजय प्राप्त करके एक मनोनिग्रह द्वारा आत्म संयम रूप परम साध्य प्राप्त करके उन सात गतियोंका नाश कर सकते हैं अथवा प्रथम पाँच गुण स्थानक और अप्रमत्त सर्वविरति गुणस्थानक छ दाने प्राप्त करके शेष ६ और ८ से १३-सात गुणस्थानक (सातदाना) प्राप्त कर्ता साधक तेरहवें गुण स्थानक पर स्थिर होकर एक दाना रूप अघाती कर्मोको जीत (क्षय) करके चतुर्दश गुणस्थानक-अयोगी दशा प्राप्त करके चेतन साध्य दशाको प्राप्त कर लेता है। इसीतरह श्रीआत्मानंदजी म.के भी संख्यावाचक प्रतीक उल्लेखनीय है उन्होंने श्री नवपदजीकी पूजामें चतुर्थ श्रीउपाध्यायजी-गुरु भगवंतके लक्षण लक्षित किये हैं -“पंच वर्ग वर्गित गुण चंग... दसविध यतिधर्म धरी अंग.... धार ब्रह्म नवगुप्ति संग....४२ उसी प्रकार बीस स्थानक पूजामें श्री आचार्यपदधारीके वर्णनमें भी “पंच प्रस्थान, आठ प्रमाद, चार अनुयोग, सात विकथा" आदिका संख्यात्मक प्रतीकों द्वारा विवरण दिया गया है । तो दसवीं पूजामें विनय-गुणोंके विविध प्रतीकोंको दर्शाया गया है-यथा “पांच भेद दस तेरसा, बावन, छासठ मान....१४३ सामान्यतः मनको मर्कटका रूप दिया गया है तो कहींकहीं उसे पवन झकोरे या वृक्षपत्र जैसा चंचल वर्णित किया है । मनके भेदको समझानेके लिए कठोर तपस्वी, महाज्ञानी और धुरंधर प्रतिभावान भी अपनी असामर्थ्यता प्रकट करते हैं | आत्मलीन अध्यात्म योगीराज श्रीआनंदघनजीम. और श्रीआत्मानंदजी म.भी उसके प्रति अपने अनुभूत सत्योंको प्रकट करते हुए, उसे वश करनेवाले प्रभुसे आह्वान करते हैंउस मनको वशमें लानेके लिए-सहायकके रूपमें, (139) Jain Education international For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002550
Book TitleVijayanandji ke Vangmay ka Vihangavalokan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiranyashashreeji
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1999
Total Pages206
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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