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________________ (36) पुव्वभवंतरभज्जा= पूर्व भव की पत्नी (के रूप में) लज्जाइ= लज्जा के कारण, विमुत्तु= त्यागे हुए, भोगे= भोगों को, भुंजए =भोगते हैं, एवं= इस तरह, तत्थ वहाँ पर, ठिया= रहते हुए, दुन्नि वि= दोनों ही, विसयसुहाइं= विषय सुखों को, विलसन्ति= भोगते हैं (प्राप्त करते हैं) (37) अह= इसके बाद, पुत्तविओगेण= पुत्र के वियोग से, दुक्खिआ= दुःखित, तस्सम्मापियरो= उसके माता-पिता, निच्चं= हमेशा, सव्वथ वि= सभी जगह पर, सोहन्ति= खोजतें हैं (लेकिन) तं-उसका, सुद्धिं पता (खोज), न-नहीं, लहन्ति= प्राप्त कर पाते। (38) देवेहिं= देवताओं के द्वारा, अवहरिअं= हरण की गई, वत्थु= वस्तु को, नरेहि= मनुष्यों द्वारा, कह= कैसे, पाविज्जए = प्राप्त की जा सकती है। जेण= क्योंकि, नराण मनुष्यों (और) सुराणं-देवताओं की, सत्तीए =शक्ति में, गरुअं= अत्यधिक, अंतरं=अन्तर (होता है)। (39) अह= इसके बाद, दुक्खिएहिं दुःखी मन वाले,तेहि-उन, अम्मापियरेहि= माता-पिता के द्वारा, केवली-मुनि को, पुट्ठो पूछा गया, भयवं= हे भगवन्, कहेह कहिए, अम्हं-हमारा, सो वह, पुत्तो-पुत्र (दुर्लभकुमार) कत्थ-कहाँ, गओ-चला गया, अस्थि है। (40) तो-तब, केवली केवली (मुनि), पयंपइ कहते हैं, सावहाणमणा सावधान होकर मन पूर्वक, सवणेहि अपने कानों से, सुणेह-सुनो, तुम्हाणं तुम्हारा, सो-वह, पुत्तो= पुत्र (दुर्लभकुमार), वंतरीए =व्यंतर देवी (यक्षिणी) द्वारा, अवहरिओ हरण कर लिया गया है। (41) केवलिवयणेणं= केवली के वचनों से, ते=उनको, अईव=अत्यधिक, अच्छरिअविम्हिआ= आश्चर्य एवं विस्मय, जाया उत्पन्न हो गया, (वे), साहन्ति कहते हैं, अपवित्तनरं अपवित्र मनुष्य को, देवा देवता आदि, कह-कैसे, अवहरन्ति हर लेते हैं। 48 सिरिकुम्मापुत्तचरि। 2600 5600 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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