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________________ अर्थ : जिस प्रकार दानों में अभयदान, ज्ञानों में केवलज्ञान, (और) ध्यानों में शुक्ल ध्यान (श्रेष्ठ) है। उसी प्रकार सभी धर्मों में भावधर्म (श्रेष्ठ है)। कम्माण मोहणिज्जं रसणा सव्वेसु इंदिएसु जहा। बंभव्वयं वएस वि तह भावो सव्वधम्मेस।। 193|| अर्थ : जैसे कर्मों में मोहनीय कर्म, सभी इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय, (तथा) महाव्रतों में ब्रह्मचर्यव्रत (श्रेष्ठ) है। वैसे ही सभी धर्मों में भाव धर्म (श्रेष्ठ) है। गिहवासे वि वसंता भव्वा पावंति केवलं नाणं। भावेण मणहरेणं इत्थ य अम्हे उदाहरणं।। 194|| अर्थ : गृहस्थावस्था में भी रहते हुए भव्य पुरुष मनोहर शुद्ध भाव से केवल ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं। इसके लिए हमारा (मेरा) उदाहरण है। इअ देसणं सुणित्ता अवगयतत्ता य मायपिअरो वि। परिपालियचारित्ता वरसत्ता सुग्गइं पत्ता ।। 195।। अर्थ : इस प्रकार उपदेशों को सुनकर तत्त्वों के जानकार, महान् पराक्रमी माता-पितारूप वे मुनि चारित्र धर्म का पालन करते हुए मोक्ष को प्राप्त हुए। अन्नेवि बहुअमविआ आयण्णिय केवलिस्स वयणाई। सम्मत्तं च चरित्तं देसचरित्तं च पडिवन्ना ।। 196|| अर्थ : दूसरे भी बहुत से भव्य लोगों ने केवली के वचनों को सुनकर सम्यग्दर्शन, सम्यग्चारित्र और देशविरति नामक अणुव्रत को स्वीकार (ग्रहण) किया। इअ बोहिअबहुअनरो कुम्मापुत्तो स केवलिप्पवरो। केवलिपरियायं पालिऊण सुचिरं सिवं पत्तो || 197 || अर्थ : इस प्रकार बहुत से व्यक्तियों को समझाता हुआ वह श्रेष्ठ केवली कूर्मापुत्र दीर्घकाल तक केवली की अवस्था को पूर्ण करके मोक्ष को प्राप्त हुआ। 40 :- 32665282500 5600-30550550550002050566666666666666666666065805888885608: 80055060665202522-228358828666666562558225656653630665363556255822883685 सिरिकुम्मापुत्तचरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002548
Book TitleSirikummaputtachariyam
Original Sutra AuthorAnanthans
AuthorJinendra Jain
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2004
Total Pages110
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size5 MB
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