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________________ 52 आराधना प्रकरण ज्ञान - (गाथा, 5,7) 'स्व' व 'पर' के बोध को ज्ञान कहते हैं। ज्ञान के पाँच भेद हैं - मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान। निज स्वरूप में संशय-विमोह रहित जो स्व ज्ञान रूप ग्राहक बुद्धि है, वह सम्यक् ज्ञान हुआ, और उसका जो आचरण अर्थात् उस रूप परिणमन करना वह ज्ञानाचार है। ज्ञानाचार के आठ भेद हैं - काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, अर्थ, व्यंजन तथा तदुभय। चतुःशरण (गाथा, 4) जैनधर्म में चार शरणभूत कहे गये हैं। जिनकी शरण में जाने से लोग दुःखों से मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करते हैं। वे चार शरणभूत इस प्रकार हैं - 1. अरहंत 2. सिद्ध 3. साधु 4. केवली प्रज्ञप्त धर्म चारित्र - (गाथा, 52) चरति चर्यतेऽनेन चरणमात्रं वा चारित्रम्। (स.सि. 1/1) अर्थात जो आचरण किया जाता है अथवा जिसके द्वारा जो आचरण किया जाता है अथवा आचारण करना मात्र चारित्र है। चारित्र आठ प्रकार का कहा गया है - पाँच समितियाँ और तीन गुप्तियाँ। तप - (गाथा, 24) कर्मक्षयार्थं तप्यत इति तपः। (स.सि. 9/6/797) अर्थात् कर्मक्षय के लिए जो तपा जाता है, वह तप है। यह 12 प्रकार का होता है - बाह्य तप छह एवं आभ्यन्तर तप छह । वे इस प्रकार हैं - बाह्य तप - अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त राय्याशन और कायक्लेश। आभ्यन्तर तप - प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान तथा व्युत्सर्ग। होष - (गाथा, 39) निर्दोषपरमात्मनो भिन्ना रागादयो दोषाः । (द्र. स. टी. 14/46/11) अर्थात् निर्दोष परमात्मा से भिन्न रागादि दोष कहलाते हैं। ये 42 हैं। र्म - (गाथा, 44,45,46) संसारदुःखतः सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे। (म. पु. 2/37) अर्थात् जो प्राणियों को संसार के दुःख से उठाकर उत्तम सुख (वीतराग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002547
Book TitleAradhana Prakarana
Original Sutra AuthorSomsen Acharya
AuthorJinendra Jain, Satyanarayan Bharadwaj
PublisherJain Adhyayan evam Siddhant Shodh Samsthan Jabalpur
Publication Year2002
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Spiritual
File Size3 MB
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