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________________ अहिणंदणो हि सुणंदणाणं, भव्वाण जीवाण अप्पहिदाणं । पयासिदं णिम्मल जेण धम्मं, देवाहिदेवं पणमामि णिचं ॥४॥ अन्वयार्थ- (हि) वास्तव में (अहिणंदणो) अभिनन्दन (सुणंदणाणं) सुनन्दन के लिए हैं, (भव्वाण जीवाण अप्पहिदाणं) भव्यजीवों को आत्महित के लिए हैं, (जेण) जिन्होंने (णिम्मलधम्म) निर्मल-धर्म (पयासिद) प्रकाशित किया [उन] (देवाहिदेवं) देवाधिदेव [अभिनन्दननाथ भगवान को मैं] (णिचं) नित्य (पणमामि) प्रणाम करता हूँ । सम्मत्तदाणे य मेहं समाणा, सण्णाणदाणे पियबंधू तुला । चारित्त-मोक्खं च वरभत्तीए हि, तं देवदेवं सुमदिं णमामि ॥५॥ अन्वयार्थ- [जो] (सम्मत्तदाणे य मेहं समाणा) सम्यक्त्वदान में मेघ के समान हैं, (सण्णाणदाणे पियबंधू तुल्ला) सम्यग्ज्ञानदान में प्रियबन्धु के समान हैं (च) और [जिनकी] (वरभत्तीए) श्रेष्ठभक्ति से (हि) निश्चित ही (चारित्त-मोक्ख) चारित्र तथा] मोक्ष [प्राप्त होता है] (तं देवदेवं सुमदिंणमामि) उन देवों के देव सुमतिनाथ जिनेन्द्र को मैं नमन करता हूँ। पोम्मं समं णिम्मल-पोम्मणाहं, पोम्मालयं केवलणाण-गेहं । सुन-समो हि तचप्पयासी, जण-सोक्ख णेदा देवं णमामि ॥६॥ अन्वयार्थ- [मैं] (पोम्म समं) पद्म के समान (णिम्मल) निर्मल (पोम्मालयं) लक्ष्मी के स्थान (केवलणाण-गेहं) केवलज्ञान के घर (सुज-समो हि तच्चप्पयासी) सूर्य के समान ही तत्त्वप्रकाशी [तथा] (जण-सोक्ख णेदा) जनता को सुख के मार्ग पर ले जाने वाले (पोम्मणाह) पद्मनाथ (देव) देव को (णमामि) नमन करता एगंतधम्मो हि मिच्छत्तमूलो, रागादि-जणिदो दुक्खाण हेदू । सम्मत्तदिट्ठी य सुक्खाण हेदू, वक्खाणिदो तं णमामि सुपासं ॥७॥ १७८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002546
Book TitleNidi Sangaho
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSunilsagar
PublisherJain Sahitya Vikray Kendra Udaipur
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size4 MB
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