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________________ समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि के लिए ही किया गया है । 'स्थितप्रज्ञ' मुनि वही होता है, जो दुःखों में अनुद्विग्न और सुखों के प्रति नि:स्पृह बना रहे, न जिसमें राग हो, न भय, न क्रोध, न द्वेष', वही वायु रहित स्थान में जलती दीपशिखा के समान अकम्प और समुद्र के सदृश 'अचलप्रतिष्ठ' होता है । वस्तुतः समता ही एकता है । यही परमेश्वर का स्वरूप है। इसमें स्थित हो जाने का नाम ही 'ब्राह्मी स्थिति' है। जिसकी इसमें गाढ़ स्थिति होती है, वह त्रिगुणातीत, निर्विकार, स्थितप्रज्ञी, और योगयुक्त कहलाता है। एक ज्ञान-स्वरूप परमात्मा में वह नित्य स्थित है, इसलिए ज्ञानी है। सर्वत्र उसे परमात्मा के दर्शन होते हैं, इसलिए वह भक्त है। उसे कोई कर्म कभी बाँध नहीं सकता, इसी कारण वह जीवनमुक्त कहलाता है । समता-दृष्टि के कारण वह निष्काम आचरण करता है, इसलिए वह महात्मा कहलाता है । वह 'विज्ञानानंदघन' में तद्रूप होकर स्थिर रहता है । उसका आनन्द नित्य, शुद्ध-बुद्ध एवं विलक्षण होता है। यह प्रश्न फिर भी उठाया जा सकता है कि समत्वयोग को ही साध्य योग क्यों माना जाये ? वह भी साधनयोग क्यों नहीं हो सकता है ? इसके लिए हमारे तर्क इस प्रकार हैं : १. ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान सभी 'समत्व' के लिए होते हैं, क्योंकि यदि ज्ञान, कर्म, भक्ति या ध्यान स्वयं साध्य होते तो इनकी यथार्थता या शुभत्व स्वयं इनमें ही निहित होता । लेकिन गीता यह बताती है कि बिना समत्व के ज्ञान, यथार्थज्ञान नहीं बनता, जो समत्वदृष्टि रखता है वही ज्ञानी है, बिना समत्व के कर्म अकर्म नहीं बनता । समत्व के अभाव में कर्म का बन्धकत्व बना रहता है, लेकिन जो सिद्धि और असिद्धि में समत्व से युक्त होता है, उसके लिए कर्म बन्धक नहीं बनते । इसी प्रकार वह भक्त भी सच्चा भक्त नहीं है, जिसमें समत्व का अभाव है। समत्वभाव से यथार्थ भक्ति की उपलब्धि होती है । समत्व के आदर्श से युक्त होने पर ही ज्ञान , कर्म और भक्ति अपनी यथार्थता को पाते हैं । समत्व वह 'सार' है, जिसकी उपस्थिति में ज्ञान, कर्म १. गीता २१५६ २. गीता ६१९ ३. गीता २०७० ४. गीता, ५११८ ५. गीता, ८।२२ .६. वही, ८५४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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