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________________ स्मत्वयोग का महत्त्व हो जायेगी कि जो समता है, वह धर्म है, और जो धर्म है वह समता है । समता अलग है, धर्म अलग है, ऐसा नहीं । जिस प्रकार 'अप्पा गाणं, णाणं-अप्पा'. आत्मा ज्ञान है, ज्ञान आत्मा है उसी तरह समता है। आर्य पुरुषों ने समता की वास्तविकता को स्वयं अनुभव किया तब कहीं वे समता की पराकाष्ठा तक पहुँच पाए । समता का विचार जैसे-जैसे जागृत होता है, वैसे वैसे विषयासक्ति की भावना शान्त हो जाती है । मन अनन्त शक्ति की ओर, दिव्य ज्ञान की ओर, दिव्य प्रकाश की ओर स्वयं ही अग्रसर हो जाता है । दीपक को अपने प्रकाश को आवश्यकता स्वयं नहीं होती है, परन्तु उसे स्वयं दीपक है, इस बात पर तो विचार करना होगा। जो वस्तु निज की है, उस पर यदि विचार नहीं किया तो क्या निज की प्रतीति हो सकती है ? ऐसे व्यक्ति से दूरे, नेव, से अँतो, नेव दूरे' - वे न विषयों से दूर हैं, न ही विषयों के पास हैं और न ही चित्तवृत्ति से दूर हैं । इसलिये यह बात विचारणीय हो जाती है सबसे पहले 'संसयं परिआणओ संसारे परित्राए भवइ, संसयं अपरिआणओ संसारे अपरिन्नाए भवई'.. जो संशय को जानता है, वह संसार को जानता है, जो संशय को नहीं जानता वह संसार को कैसे जान सकता है ? इस विचार-बिन्दु का मंथन करें क्योंकि जिस संसार में हम लोग रह रहे हैं वह संसार कैसा है ? कैसा नहीं ? केवल स्त्री, कुटुम्ब, परिवार, समाज, देश, राष्ट्र आदि का नाम संसार मानकर हम चलते रहें तो संसार का कभी भी आभास ही नहीं हो सकेगा; मात्र स्वार्थवृत्ति या धनोपार्जन के अलावा कुछ नहीं रहेगा। संसार में जहाँ एक ओर छल है, ममत्व है, वहीं दूसरी ओर समत्व-भाव भी है, समत्व-मार्ग पर चलने वाले भी हैं, उनका पथ देखो, फिर अपना पथ देखो। इससे ही शीघ्र और सरलता से ज्ञात हो जाएगा कि मैं कहाँ हूँ। इससे यह भी ज्ञात हो जाएगा कि न कोई गरीब है और न कोई अमीर, न कोई शत्रु है और न कोई मित्र । अपितु 'तुमेव मित्ते तुमेव सत्तु'-तुम ही मित्र हो, तुम ही शत्रु हो । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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