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________________ ३०६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि की है उन परमात्माओं से ईश्वर भिन्न प्रकार का नहीं है। ईश्वरत्व का लक्षण और मुक्ति का लक्षण एक ही है। मुक्ति प्राप्त करना ही ईश्वरत्व की प्राप्ति है। 'ईश्वर' शब्द का अर्थ 'समर्थ' होता है। अत: अपने ज्ञानादिपूर्ण शुद्ध स्वरूप में पूर्ण समर्थ होने वाले के लिए 'ईश्वर' शब्द बराबर लागू हो सकता है। जैन शास्त्र कहते हैं कि मोक्ष-प्राप्ति के कारणभूत सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र का अभ्यास बढ़ता-बढ़ता जब पूर्ण स्थिति पर पहुँच जाता है तब आवरण - बन्ध सर्वथा दूर हो जाता है और आत्मा का ज्ञान आदि सम्पूर्ण स्वरूप पूर्णरूप से प्रकाशित होता है। इस स्थिति पर पहुँचना ही ईश्वरत्व है। कोई भी आत्मा अपने स्वरूप विकास के अभ्यास में आगे बढ़े, परमात्मस्थिति पर पहुँचने का यथायोग्य प्रयत्न करे तो वह जरूर ईश्वर हो सकती है ऐसा जैन-शास्त्रों का सिद्धान्त है। ईश्वर कोई एक ही व्यक्ति है ऐसा जैन सिद्धान्त नहीं है। ऐसा होने पर भी परमात्मस्थिति पर पहुँचे हुए सब सिद्ध एक जैसे निराकार होने के कारण, दीप ज्योति की भाँति परस्पर मिल जाने से, समष्टिरूप से - समुच्चय से उन सबका 'एक' शब्द से कथंचित् व्यवहार हो सकता है। जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियों का अथवा भिन्न-भित्र कुओं का इकट्ठा किया हुआ पानी एक-दूसरे में मिल जाता है - उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं रहता और एकरूप से उनका व्यवहार होता है, उसी प्रकार प्रकृत में भी भिन्न-भिन्न जलों की भाँति एक-दूसरे में मिले हुए सिद्धों के बारे में ‘एक ईश्वर' अथवा 'एक भगवान' का व्यवहार होना भी असंगत अथवा अघटित नहीं है। जैन धर्म का एक सिद्धान्त यह है कि ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं हैं.। जैन शास्त्रों का ऐसा कथन है कि कर्मबल से घूमते हुए संसारचक्र में निर्लेप, परम वीतराग और परम कृतार्थ ऐसे ईश्वर का कर्तृत्व कैसे सम्भव हो सकता है ? चेतन-अचेतनरूप अखिल जगत् प्रकृतिनियम से ही संचालित है। प्रत्येक प्राणी के सुख-दु:ख अपने-अपने कर्म-संस्कार के ऊपर अवलम्बित हैं। पूर्ण शुद्ध वीतराग ईश्वर न तो किसी पर प्रसन्न होता है और न किसी पर अप्रसन्न । ऐसा होना वीतराग स्वरूप निरंजन परमेश्वर में शक्य नहीं। १.सामान्य केवलज्ञानियों की अपेक्षा तीर्थंकर पुण्य प्रकृतियों के महत्तर प्रभाव के कारण तथा धर्म के एक महान प्रभावशाली प्रकाशक की दृष्टि से बहुत उच्च कोटि पर हैं, परन्तु आत्मविकास इन दोनों का एक-जैसा ही है। निरावरण दशा से प्रादुर्भूत ज्ञानपूर्णता अथवा परमात्म दशा इन दोनों प्रकार के केवलियों में सर्वथा समान होती है। अत: ये दोनों (तीर्थंकर और सामान्यकेवली) परमात्मा हैं। - - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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