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________________ २७४ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि और (२) असम्प्रज्ञात, ऐसे दो भेद हैं। जो मोक्ष का साक्षात् अव्यवहित कारण हो अर्थात् जिसके प्राप्त होने के बाद तुरंत ही मोक्ष हो, वही यथार्थ में योग कहा जा सकता है। ऐसा योग जैनशास्त्र में संकेतानुसार वृत्तिसंक्षय और पातंजलदर्शन के संकेतानुसार असम्प्रज्ञात ही है। अतएव यह प्रश्न होता है कि योग के जो इतने भेद किये जाते हैं, उनका आधार क्या है ? इसका उत्तर यह है कि अलबत्ता वृत्तिसंक्षय किंवा असम्प्रज्ञात ही मोक्ष का साक्षात् कारण होने से वास्तव में योग है । तथापि वह योग किसी विकासगामी आत्मा को पहले ही पहल प्राप्त नहीं होता, किन्तु इसके पहले विकास क्रम के अनुसार ऐसे उनेक आंतरकि धर्म-व्यापार करने पड़ते है, जो उत्तरोत्तर विकास को बढ़ानेवाले और अंत में उस वास्तविक योग तक पहुँचाने वाले होते हैं। वे सब धर्म-व्यापार योग के कारण होने से अर्थात् वृत्तिसंक्षय या असम्प्रज्ञात योग के साक्षात् किंवा परम्परा से हेतु होने से योग कहे जाते हैं। सारांश यह है कि योग के भेदों का आधार विकास का क्रम है। यदि विकास क्रमिक न होकर एक ही बार पूर्णतया प्राप्त हो जाता तो योग के भेद नहीं किये जाते । अतएव वृत्तिसंक्षय जो मोक्ष का साक्षात् कारण है, उसको प्रधान योग समझना चाहिए और उसके पहले के जो अनेक धर्म व्यापार योगकोटि में गिने जाते हैं, वे प्रधान योग के कारण होने से योग कहे जाते हैं । इन सब व्यापारों की समष्टि को पातंजलदर्शन में सम्प्रज्ञात कहा है और जैन शास्त्र में शुद्धि के तर-तम भावानुसार उस समष्टि के अध्यात्म आदि चार भेद किये हैं। वृत्तिसंक्षय के प्रति साक्षात् किंवा परंपरा से कारण होने वाले व्यापारों को जब योग कहा गया, तब यह प्रश्न पैदा होता है कि ये पूर्वभावी व्यापार कब से लेने चाहिए। किन्तु इसका उत्तर पहले ही दिया गया है कि चरम पुद्गलपरावर्त काल से जो व्यापार किये जाते हैं, वे ही योग कोटि में गिने जाने चाहिए । इसका सबब यह है कि सहकारी निमित्त मिलते ही, वे सब व्यापार मोक्ष के अनुकूल अर्थात् धर्म-व्यापार हो जाते हैं । इसके विपरीत कितने ही सहकारी कारण क्यों न मिलें, पर अचरम पुद्गल-परावर्तकालीन व्यापार मोक्ष के अनुकूल नहीं होते। २. तप तप एक ऐसा प्रशस्त योग है जो आत्मा को परमात्मा से जोड़ देता है; उसका परिष्कार कर उसे परमात्म-स्वरूप बना देता है। आचार्य आससेन के शब्दों में- “सर्वेष्वपि तपोयोग, प्रशस्त: -----" सभी साधनों में तप योग प्रशस्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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