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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २६३ अब अन्त में वाचस्पति गैरोला के विचार देखें। वे लिखते हैं“प्रत्येक निष्पक्ष विचारक को लगेगा कि स्याद्वाद ने दर्शन के क्षेत्र में विजय प्राप्तकर अब वैज्ञानिक जगत् में विजय पाने के लिए सापेक्षवाद के रूप में जन्म लिया “स्याद्वाद का जितना संबंध अध्यात्म से है, उतना ही भौतिक वस्तु से भी।"२ “जैनों.का अनेकान्तवाद कुछ ऐसा गढ़ा हुआ सिद्धान्त नहीं है, जिसमें जैन दर्शन की वैयक्तिक दृष्टि का आभास मिलता हो । वह तो लोकदृष्टि से जीतना उपयोगी है विचार की दृष्टि से भी उतना ही उपयोगी है।" आधुनिक युग में चिन्तन और विचार की शैली एवं पद्धति में वैज्ञानिक दृष्टिकोण आ गया है, जिसकी वजह से विरोध और राग-द्वेष की भावनाएँ कम होती जा रही हैं। आज देश को, और विश्व को ऐसे चिन्तन की आवश्यकता नहीं है जिससे अशान्ति और रागद्वेष को बढ़ावा मिले । हमें एक ऐसी चिन्तन शैली की आवश्यकता है, जिससे एकता, समरसता, सहिष्णुता, समता, शान्ति तथा सामंजस्य एवं समन्वय रह सके । मेरे विचार में अनेकान्त इस कार्य को सफलता से कर सकता है। विचारों की संकीर्णता या असहिष्णुता ईर्ष्या-द्वेष की जननी है। इस असहिष्णुता को हम किसी अंधकार से कम नहीं समझते । आज समाज में जो असमानता और अशान्ति है, उसका मुख्य कारण यही विचारों की संकीर्णता है । इस संकीर्णता को अनेकान्तवाद मिटाता है। यदि पदार्थ के स्वभाव को समझना है, और ज्ञान का यथार्थ मूल्यांकन करना है तो अनेकान्तमयी स्याद्वाद दृष्टि को अपनाना चाहिए । क्योंकि साधारण मनुष्य की शक्ति अत्यल्प है और बुद्धि परिमित ऐसी स्थिति में बहुत प्रयत्न करने पर भी हम ब्रह्माण्ड के असंख्य पदार्थों का ज्ञान करने में असमर्थ रहते हैं। स्याद्वाद यही प्रतिपादित करता है कि हमारा ज्ञान पूर्ण सत्य नहीं कहा जा सकता है। इसलिए हमारा ज्ञान आपेक्षिक सत्य है। १. भारतीय दर्शन (गैरोला पृ० १२०) २. वही, पृ० १२०। ३. वही, पृ० १२५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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