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________________ समन्वय, शान्ति और समत्वयोग का आधार - अनेकान्तवाद २४९ को सहस्रों वर्ष पूर्व परख चुके थे। जैन दार्शनिकों ने तो वस्तु का धर्म ही त्रिविधात्मक बताया, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त सत्; अर्थात् वस्तु वह है जिसके अन्तर में उत्पत्ति, नाश और निश्चलता एकसाथ चलते हैं। प्रत्येक वस्तु में पूर्व-पर्याय का नाश, उत्तर-पर्याय (स्वभाव) की उत्पत्ति व मूल स्वभाव की निश्चलता वर्तमान है। उन्होंने बताया, अनन्त धर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त स्वभाव है। उनमें से जीर्ण का व्यय है, नवीन का उत्पाद है और वस्तुत्व का ध्रौव्य है। ब्रह्माण्ड के मूल उपादान परमाणु प्रस्तुत स्वरूप को छोड़ते हैं, अनागत को ग्रहण करते हैं, किन्तु उनका परमाणुत्व सदा शाश्वत रहता है। जैन दर्शन के अनुसार कोई रूपी धर्म ऐसा नहीं है, जिसका अस्तित्व परमाणुओ में न हो । विश्व संघटना का दूसरा उपादान जीव-आत्मा व चेतन है। वह भी अनन्तधर्मात्मक है और उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य की त्रिपदी में बरतता रहता है। पर जड़चेतन का अत्यन्त विरोधी है इसलिए जड़ का चेतन में और चेतन का जड़ में गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो सकता। इसी तथ्य की पुष्टि गीताकार ने इन शब्दों मे की है - "नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।" - अर्थात् असत् उत्पन्न नहीं होता और सत् का नाश नहीं होता। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी कहते हैं कि गुणात्मक परिवर्तन से जो भाव पैदा होता है, वह उस वस्तु में किसी अंश में पहले नहीं था। वहाँ तो नितान्त असत् की उत्पत्ति होती है। अत: यह मानना चाहिए कि जड़ के गुणात्मक परिर्वतन से चेतना पैदा होती है। नास्तिकों के सामने जब 'नाऽसद् उत्पद्यते' का सिद्धान्त एक दुरूह चट्टान बनकर खड़ा हो गया तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों ने उससे बच निकलने के लिए गुणात्मक परिवर्तन के नाम से असत् उत्पत्ति का मार्ग निकाला । चैतन्य जैसी वस्तु जड़धर्मा न कभी हुई, न कभी हो सकती है। जड़ से चैतन्य पैदा होने की बात अरूप शून्य से घटादि सरूप पदार्थ के पैदा होने की-सी बात है। अरूप और सरूप का, जड़ और चैतन्य का आत्यन्तिक विरोध है। प्रतिषेध का प्रतिषेध द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के इस रचनाकार्य की तीसरी सीढ़ी, प्रतिषेध का प्रतिबेध है। उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य की त्रिवेणी को समझनेवालों के लिए आत्मोत्पाद के विषय को लेकर द्वन्द्वात्मक त्रिपुटी को सहज ही समझा जा सकता है। समाज, राजनीति, अर्थव्यवस्था आदि विषयक परिर्वतनशीलता को उक्त त्रिपुटी के नियमों से आबद्ध करने का प्रयत्न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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