SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २४४ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि करते । एक जगह कहा गया है : वह नहीं हिलता है, और वह हिलता भी है। अन्यत्र एक ऋषि कहता है : सत् एक है किन्तु विप्र उसे अनेक रूप से वर्णन करते हैं । ३ दूसरी जगह कहा है : “सृष्टि के आरम्भ में सत् ही था, असत् से सत् की उत्पत्ति कैसे हो गई ?' ४ गीता में एक जगह कहा गया है : “न स सत्तन्नासदुच्यते” अर्थात् वह न सत् है और न असत् । इन उल्लेखों से इतना स्पष्ट है कि वैदिक ऋषि सत् और असत् दोनों से परिचित थे कहीं एक का समर्थन है, कहीं दोनों की विधि है और कहीं दोनों का निषेध है। यथार्थ में देखा जाए तो प्रतीत होगा कि यही तीनों विकल्प-सत्-असत् अवक्तव्य नय के समान हैं। गुण-गुणी आदि का सर्वथा भेद स्याद्वाद से विरुद्ध पड़ता है। दोनों दर्शन पर्यायवादी होने के कारण कुछ समानता रखते हैं । पृथ्वी आदि तत्त्वों को नित्यानित्य मानकर, स्याद्वाद के कुछ निकट प्रतीत होते हैं। इनका प्रमाण-विषयक चिन्तन अपूर्ण है। अकलंक आदि ने इसके चिन्तसे प्रभावित होकर प्रत्यक्ष के मुख्य और सांख्य-व्यवहारिक दो भेद किये हैं। (अ) सांख्ययोग और स्याद्वाद सांख्य अत्यन्त प्राचीन होने के कारण विशेष विचारणीय है। ये दो तत्त्व को मानते हैं : १. पुरुष और २. प्रकृति । पुरुष पुष्कर-पलाश के समान निर्लेप है। वह भोक्ता है। 'पुरुष जैन-दर्शन के समान अनेक हैं । वह निरपेक्ष द्रष्टा है। बुद्धि से अध्यवसित अर्थ में पुरुष चेतना पैदा करता है। इनका लक्ष्य कैवल्य है। प्रकृति तत्त्व जैन पुद्गल तत्त्व से समानता रखता है किन्तु यह एक है, जड़ है, और प्रसवधर्मी है। सत्व, रज, तमस् की समता प्रकृति है। इनके अन्दर क्षोभ होने से सृष्टि का आरम्भ होता है। और प्रकृति से महान्, महान् से अहंकार, उससे षोडश गुण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ पाँच भूत और उनसे पाँच तन्मात्राएँ और मन की उत्पत्ति या विकास होता है।६ कर्तृत्व-धर्म इसमें पाया जाता है । यह विकार को भी स्थान देती है। पुरुष न प्रकृति १. नासदासीनो सदासीत् तदानीम् -इत्यादि । ऋग्वेद १०/१२९/४ २. यनैजति तदे जति.... उपनिषद् ३. एक सत् विप्रा बहुधा वदन्ति ।। - उपनिषद् । ४. सदेवेदमग्रं आसीत् कथं त्वसत: सज्जायेति - ताण्ड्यब्राह्मण, प. ६/२ ५. प्रकृतिस्तु की पुरुषस्तु पुष्करपलाशवनिर्लेप: ६. प्रकृतेर्महास्ततोऽहंकारः ..... पंचेभ्य: पंचभूतानि - सांख्य तत्त्वकौमुदी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy