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________________ समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक २०१ सूर्य नारायण, यक्षपति और देवताओं से मेरी प्रार्थना है कि यज्ञ विषयक तथा क्रोध से किये हुए पापों से मेरी रक्षा करें। दिन या रात्रि में मन, वाणी, हाथ, पैर, उदर और शिश्न से जो पाप हुए हों, उन पापों को मैं अमृतयोनि सूर्य में होम करता हूँ। इसलिए वह उन पापों को नष्ट करे। प्रार्थना करना बुरा नहीं है। अपने इष्टदेव के चरणों में अपने आप को समर्पण करना और अपने अपराधों के प्रति क्षमायाचना करना, मानवहृदय की श्रद्धा और भावुकता से भरी हुई कल्पना है। परन्तु, सब कुछ देवताओं पर ही छोड़ वैठना, अपने ऊपर कुछ भी उत्तरदायित्व न रखना, अपने जीवन के अभ्युदय एवं निश्रेयस् के लिए खुद कुछ न करके दिन-रात देवताओं के आगे नत-मस्तक होकर गिड़गिड़ाते ही रहना, उत्थान का मार्ग नहीं है। इस प्रकार मानवहृदय दुर्बल, साहसहीन एवं कर्तव्य के प्रति परांड्रमुख हो जाता है। अपनी और से जो दोष, पाप अथवा दुराचार आदि हुए हों, उन के लिए केवल क्षमा-प्रार्थना कर लेना और दंड से बचे रहने के लिए गिड़गिड़ा लेना, मानव जाति के लिए बड़ी ही घातक विचारधारा है। सिद्धान्त की बात तो यह हैं कि सर्वप्रथम मनुष्य कोई अपराध ही न करे। और, यदि कभी कुछ अपराध हो जाय, तो उसके परिणाम को भोगने के लिए सहर्ष प्रस्तुत रहे। यह क्या बात है कि बढ़ बढ़ कर पाप करना और दंड भोगने के समय देवताओं से क्षमा की प्रार्थना करना, दंड से बच कर भाग जाना । यह भीरुता है, वीरता नहीं। और, भीरुता कभी भी धर्म नहीं हो सकती। प्रार्थना का उद्देश्य पाप से पलायन करना नहीं, किन्तु अतीत के पाप का प्रक्षालन करना और भविष्य में उसका परिवर्जन करना है। क्षमा-प्रार्थना के साथ-साथ यदि अपने जीवन को अहिंसा, सत्य आदि की मधुर भावनाओं से भरें, हृदय में आध्यात्मिक बल का संचार करें, तो वह प्रार्थना व उपासना वस्तुत: सही हो सकती है। जैन धर्म की सामायिक में किसी लम्बी चौड़ी प्रार्थना के बिना ही, जीवन को स्वयं अपने हाथों पवित्र बनाने का सुन्दर विधान आपके समक्ष है। आर्य समाजी प्रार्थना ___ अब रहा आर्यसमाज । उसकी सन्ध्या भी प्रायः सनातन धर्म के अनुसार ही है। वही जल की साक्षी, वही अधर्मषण में सृष्टि का उत्पत्ति क्रम, वही प्राणायाम, वही स्तुति, वही प्रार्थना । हाँ, इतना अन्तर अवश्य हो गया है कि यहाँ पुराने वैदिक देवताओं के स्थान में सर्वत्र ईश्वर परमात्मा विराजमान हो गया है। एक विशेषता मार्जन मन्त्रों की है। किन्तु मन्त्र पढ़कर सिर, नेत्र, कण्ठ, हृदय, नाभि, पैर आदि को पवित्र करने में क्या गुप्त रहस्य है; करने वाले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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