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________________ १८८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि इह सावधयोगप्रत्याख्यानरूपस्य सामायिकस्य मुहूर्तमानता सिद्धान्नेऽनुक्ताऽपि ज्ञातव्या प्रत्याख्यानकालस्य जधन्यतोऽपि मुहूर्तमात्रत्वान्नमस्कारसहित प्रत्याख्यानवदिति । (इस सावध योग के प्रत्याख्यान रूप सामायिक का मुहूतकाल स्वीकार का निर्णय शास्त्र-सिद्धान्तों में नहीं है। लेकिन किसी भी प्रत्याख्यान का जघन्यकाल नवकारशी के प्रत्याख्यान के समान एक मुहूर्त का है।) हेमचन्द्राचार्य ने योगशास्त्र' के तृतीय प्रकाश में सामायिक लक्षण निर्देश करते समय मुहूर्तकाल का निर्देश किया है। साधु भगवंतों का सामायिक यावज्जीवन होता है। वे आरंभ, परिग्रह या अर्थोपार्जन या गृहसंसार निभाने के उत्तरदायित्व से मुक्त हैं । इसलिए सावद्ययोगों में से निवृत्त होकर वे सतत समताभाव में रह सकते हैं। इसके ही कारण उनके लिए निश्चित काल एक आसन पर बैठना आवश्यक नहीं है । (प्रतिक्रमण आदि क्रियाविधि के लिए बात और है ।) गृहस्थ लोग सांसारिक उत्तरदायित्व से निवृत्त हो जाने के बाद एक आसन पर बैठ सकते हैं और समताभाव में रह सकते हैं। इसलिए काया के सावध योग अगर शांत हो जाय तो वे अन्तर्मुख होकर समताभाव का अनुभव भी कर सकते हैं। यदि गृहस्थों के लिए ऐसी कोई कालमर्यादा रखी न होती और समयावकाशानुसार पाँच पंद्रह मिनीट का सामायिक वे कर सकें ऐसी व्यवस्था होती तो इस क्रियाविधि का कोई गौरव न रहता और अनवस्था प्रवर्तमान होती। और गृहस्थों के जीवन में शिथिलता, प्रमाद आदि का होना भी संभव है। इसलिए कम से कम समय के लिए सामायिक करने की वृत्ति बढ़ती जाय, एकदूसरे का अनुकरण भी होने लगे और अंत में सामायिक के प्रति अभाव भी उत्पन्न हो जाय। इस दृष्टिकोण से भी सामायिक का कालमान निश्चित हो वह आवश्यक हैं। तदुपरांत किसी भी क्रियाविधि में जहाँ स्वेच्छा से समय व्यतीत करना होता है वहाँ एक प्रकार की एकरूपता (Uniformity) हो और सामान्य जनसमुदाय में वादविवाद, संशय आदि को अवकाश न हो यह भी आवश्यक है। अत: कितनी ही सदियाँ बीत जाने के बाद भी सामायिक के दो घड़ी के कालमान की परंपरा भिन्न-भिन्न प्रदेश के, भिन्न-भिन्न भाषा बोलने वाले सभी जैनों में समान रूप से चली आई हैं। किसी के मन में यह प्रश्न भी उपस्थित हो सकता है कि सामायिक की कालमर्यादा दो घडी की ही क्यों ? अधिक समय के लिए न रखी जाय ? इसका उत्तर यह हो सकता है कि गृहस्थजीवन को और मनुष्य की चित्तशक्ति को लक्ष्य में रखकर यह कालमर्यादा निश्चित की गई है। सामायिक का काल इतना लंबा न होना चाहिए कि जिससे अपने दैनिक उत्तरदायित्व और कार्यों से निवृत्त हो कर इतने कम समय के लिए भी अवकाश पाना गृहस्थों के लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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