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________________ समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक १८३ है । जैसे जैसे अनुभव बढ़ता जाता है वैसे वैसे दोष दूर हो जाते हैं । अभ्यास से साधना में उत्तरोत्तर विशुद्धि होती रहती है। प्रारंभ में जरा सी अपक्वता रहती है। इसी ही कारण वह प्रवृत्ति त्याग योग्य नहीं है। कुम्हार का लड़का चक्र पर मिट्टी के बर्तन बनाना सीखे अथवा तो छोटा बच्चा अक्षर-लेखन सीखे तो इसमें ज्यों ज्यों विशेष महावरा होता जाय त्यों त्यों परिणाम अच्छा आता है। सामायिक व्रत के आरंभ में साथ में लेने की या अलग करने की विधि का किसी को कोई भी ज्ञान न हो तो इसके बिना भी सामायिक का आरंभ किया जा सकता है। और उसके बाद उसकी विधि का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। शास्त्रकारोंने कहा है कि शिक्षाव्रत के पालन न करने वालों को जितना दोष लगता है इतना दोष अविधि व्रत करने वाले को नहीं लगता। विशेषावश्यक भाष्य में श्री जिनभद्र क्षमाश्रमण ने कहा है - सामाइअंमि उ कए समणो इव साववो हवइजम्हा । ए एण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा। (सामायिक करने से श्रावक साधु जैसा बनता है। इसलिए अधिक बार सामायिक करना चाहिए।) दो घडी के सामायिक में पाप रूप प्रवृत्तियाँ रुक जाती हैं और त्याग-संयमादि भावों का अनुभव होता है । इसलिए श्रावकों को जब जब भी समय मिले तब तब सामायिक करने का सूचन किया गया हैं। जाहे खणिउ ताहे सामाइयं करेइ । अन्यत्र भी कहा गया है - जीवो पमाय बहुलो बहुसोवि अ बहुविहेसु अत्थेसु । ए एण कारणेणं बहुसो सामाइयं कुजा ।। (जीव अधिक प्रमादयुक्त है । अनेकविध अर्थों में (पदार्थों में) वह अति रत रहता है। इसलिए अधिक बार सामायिक करना चाहिए ।) आवश्यक चूर्णि में कहा है : यदा सव्व सामाइयं काउमसतो तदा देस सामाइयंपि ताव बहुसो कुजा तथा जत्थं वा वीसमइ अच्छई वा निव्वारो सवत्थ सामाइयं करेइ । (जब सर्व से (सर्व विरति लेकर) सामायिक करने में असमर्थ हो, तब देश से (देश विति में) भी अधिक सामायिक करना चाहिए । और जब विश्राम (फुरसत) मिले अथवा निर्व्यापार स्थिति हो (दूसरा कोई काम न हो) तब तो सामायिक सर्वथा ही करना चाहिए।) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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