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________________ समत्व - योग प्राप्त करने की क्रिया - सामायिक ज्ञानवंत की संगति नाही रहियो प्रथम गुणठाणे ॥ (द्रव्य अक्षय है और आत्मा अभग । सामायिक अपने स्थान पर है। ज्ञानवंत की संगति नहीं है । इसलिए प्रथम गुणस्थानक पर रहो ।) इस प्रकार प्रथम गुणस्थानक से तेरहवें गुणस्थानक तक जीव का सामायिक कैसा कैसा होता है उसका वर्णन इस पद में किया है। अत: सतत अभ्यास द्वारा ऊर्ध्वगामी होने की यात्रा ही सामायिक है ऐसा बतलाते वे अंत में कहते है । सामायिक नर अंतर दृष्टे, जो दिन-दिन अभ्यासे, जग जशवाद लेह जो बेठो, ज्ञानवंत के पास । (प्रतिदिन के अभ्यास के बाद सामायिक कर्ता नर अंतर्मुख होता है जो ज्ञानवंत के पास बैठता है वह जग में यश पाता है। . ___ सामायिक में द्रव्य क्रिया से लेकर देशविरति, सर्वविरति, संवर और निर्जरा, उपश्रम श्रेणी, क्षपक श्रेषी, आत्मा के आठ सचक प्रवेश, चार घनघाती कर्मो का क्षय, केवलज्ञान और अंतर में सिद्धगति । इन सभी को लक्ष्य में रखकर सिद्धात्माओं की अंतिम स्थिति तक की भिन्न भिन्न गति की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न नय के किस प्रकार से अर्थ होते हैं यह शास्त्रकार महर्षि ने बतलाया है ! सामायिक शिक्षाव्रत है : __इस अनन्त वैविध्यपूर्ण संसार में सर्व जीव एक समान कोटि के हो नहीं सकते। भिन्नभिन्न गति की अपेक्षा से जीवों को देखें तो कितने ही देवगति में हैं और कितने ही मनुष्यगति में वय की अपेक्षा से मनुष्यों का विचार करें तो कितने ही बाल्यावस्था में है और कितने ही वृद्धावस्था में । यदि मोक्ष गति ही जीवों का अंतिम लक्ष्य हो तो कितने ही जीव मोक्षगति की और आगे बढे हुए दिखाई देंगे तो विपरीत स्थिति में बलात्, श्रमपूर्वक गति करते, दिखाई देंगे। मोक्ष मार्गी जीव भी भिन्न-भिन्न कक्षा के दिखाई देंगे और भिन्न-भिन्न स्तरों में भी । जब तीर्थंकर परमात्मा समवसरण में देशना (बोध) देते हैं तो वह ऐसी होती हैं कि इसमें से किसी भी कक्षा के सर्व विकासोन्मुख जीवों को अपनी कक्षा से ऊर्ध्वगामी होने का मार्गदर्शन मिल जाता हैं। ___ मोक्ष प्राप्ति के लिए सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र की आवश्यकता रहती है । सम्यक् चारित्र के दो प्रकार हैं सर्व विरति और देश विरति । सर्व विरति प्रकार में गृह संसार त्यजकर दीक्षा अपनाने वाले साधु भगवंतो के चारित्र समाविष्ट होते हैं । जो गृहस्थ संयम आराधन करे वे देशविरति चारित्र में समाविष्ट होते हैं। भगवान महावीर ने सर्व विति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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