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________________ १७२ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि है। लकड़े की छाल उखेड़ने में उसका उपयोग होता है। कोइ व्यक्ति किसीके एक हाथ पर वसूला घिस कर हाथ की त्वचा उखेड़ता हो और दूसरा व्यक्ति दूसरे हाथ पर चंदनलेप लगाता हो तो इन दोनों के प्रति समभाव रख सके ऐसे महात्माओं की समता को मोक्षांग रूप से बतलाई ‘वासी चंदन' का दूसरा भी अर्थ निकाला जाता है। चंदन वृक्ष ज्यों ज्यों काटा जाता है त्यों त्यों वह काटने वाली कुल्हाड़ी को भी सुगंधित करता है। इसी तरह महापुरुषों का सामायिक वैर-विरोध करने वाले लोगों के प्रति समभाव रूपी सुगंध अर्पित करता है । इसी लिए तो सर्वज्ञ भगवान ने कहा है कि सामायिक मोक्षांग है, मोक्ष का अंग है। इन दोनों अर्थो में से ‘वासी चन्दन' का प्रथम अर्थ अधिक सच्चा है। सामायिक के बिना मोक्ष प्राप्ति हो ही नही सकती । मोक्ष प्राप्ति के लिए केवल ज्ञान प्राप्त होना चाहिए। जब तक चार घनघाती कर्मों का (ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय कर्म) क्षय न हो तब तक केवल ज्ञान प्रकाशित नहीं होता । जब तक जीव 'संवर' (आत्माभिमुखता) द्वारा नये कर्मों में रूकावट न डाले और निर्जरा' (तप) द्वारा पुराने कर्मों का नाश न करें तब तक घाती कर्मो से मुक्त नहीं हो सकता । जब तक राग-द्वेष के परिणामों का चक्र चलता ही रहेगा तब तक घाती कर्मों का अस्तित्व रहेगा ही। सच्ची समता पाने से ही राग-द्वेष विलीन हो जाते हैं। समताभाव धारणकर आत्मरमणता का अनुभव करने के लिए सामायिक ही एक मात्र उपाय है। इसीलिए तो श्रीहरिभद्रसूरिने ‘अष्टक प्रकरण' में सामायिक का फल बताते हुए कहा है : सामायिक विशुद्धात्मा सर्वथा घाति कर्मणः । क्षपास्केवल माप्नोति लोकालोक प्रकाशकम् ॥ (सामायिक करने से विशुद्ध बनी हुई आत्मा ज्ञानावरणीय आदि चार घाति कर्मो का सर्वथा क्षय कर लोकालोक में प्रकाश करने वाला केवलज्ञान प्राप्त करता है। ___सामायिक द्वारा आत्मा को सर्वथा विशुद्ध करने के लिए प्रबल पुरुषार्थ की अपेक्षा रहती है। ऐसे भी कितने ही सारे लोग हैं जिन्हें कई जन्मों की उत्तरोत्तर साधना के बाद ही केवलज्ञान प्राप्त होता है । इसी के कारण जीव को गृहस्थ के दो घड़ी के क्रियाविधियुक्त सामायिक से प्रारंभ कर निश्चय स्वरूप भाव-सामायिक तक पहुंचना है। इसी में किसी का विकासक्रम मंद भी हो सकता है और किसी का अत्यन्त वेगवंत । लेकिन इतना तो निश्चित है कि सामायिक के बिना मोक्ष प्राप्ति नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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