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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय १४७ मूल आगम में ज्ञान के सीधे पाँच भेद स्वीकार किए गये हैं। पाँच ज्ञानों में पहला ज्ञान है - मतिज्ञान । मतिज्ञान का अर्थ है - इन्द्रिय और मन-सापेक्ष ज्ञान । जिस ज्ञान से इन्द्रिय और मन की सहायता की अपेक्षा रहती है, उसे यहाँ पर मतिज्ञान कहा गया है। शास्त्र में मतिज्ञान के पर्यायवाची रूप में स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध शब्दों का प्रयोग भी किया गया है। इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाला ज्ञान मतिज्ञान होता है। इस प्रकार मतिज्ञान के दो भेद हैं - इन्द्रियजन्य ज्ञान और मनोजन्यज्ञान । जिस ज्ञान की उत्पति में मात्र इन्द्रिय निमित्त हो, वह इन्द्रियजन्य ज्ञान है और जिस ज्ञान की उत्पत्ति में मात्र मन ही निमित्त हो, वह मनोजन्य ज्ञान हैं। पाँचो इन्द्रियों का विषय भिन्न-भिन्न है। एक इन्द्रिय दूसरी इन्द्रिय के विषय को ग्रहण नहीं कर सकती, उदाहरण के लिए रूप को चक्षु ही ग्रहण कर सकता है, श्रोत्र नहीं; और शब्द को श्रोत्र ही ग्रहण कर सकता है, चक्षु नहीं। प्रत्येक इन्द्रिय की अपनी अपनी विषयगत सीमा और मर्यादा है। परन्तु मन के विषय में यह नहीं कहा जा सकता। मन एक सूक्ष्म इन्द्रिय हैं, जो सभी इन्द्रियों के सभी विषयों को ग्रहण कर सकता है। इसी आधार पर मन को सर्वार्थग्राही इन्द्रिय कहा जाता है। मन को कहीं - कही पर अनिन्द्रिय भी कहा गया है। मन को अनिन्द्रिय कहने का अभिप्राय यही है, कि उसका कोई बाह्य आकार न होने से वह अत्यन्त सूक्ष्म है। अत: वह इन्द्रिय न होते हुए भी इन्द्रिय सदृश है। मन के दो भेद किए गए हैं - द्रव्यमन और भावमन । द्रव्यमन पौद्गलिक है। भावमन उपयोग रूप है। इस प्रकार शास्त्रों में मन के स्वरूप का जो प्रतिपादन किया गया है, वहाँ यह बताया गया है कि भावमन संसार के प्रत्येक प्राणी को होता है, किन्तु द्रव्यमन किसी को होता है, और किसी को नहीं भी होता हैं। जिस संसारी जीव में भावमन के साथ द्रव्यमन भी हो, वह संज्ञी कहलाता है और जिसके भावमन के साथ द्रव्यमन न हो तो वह असंज्ञी कहा जाता है। मन का कार्य - चिन्तन करना । वह स्वतन्त्र चिंतन के अतिरिक्त इन्द्रिय द्वारा द्वारा गृहीत वस्तुओं के बारे में भी चिन्तन करता है। मन में एक ऐसी शक्ति है, जिससे वह इन्द्रियों से अगृहीत अर्थ का चिन्तन भी कर सकता है। इसी को मनोजन्यज्ञान कहा गया है। किसी भी पदार्थ के ज्ञान के लिए इन्द्रिय और मन की सहायता अपेक्षित तो रहती ही है, किन्तु अन्य भी प्रकाश आदि कुछ ऐसे कारण हैं, जो मतिज्ञान में निमित्त होते हैं। किन्तु यह प्रकाश आदि ज्ञानोत्पत्ति के अनिवार्य और अव्यवहित कारण नहीं है। आकाश और काल आदि की भाँति व्यवहित कारण हो सकते हैं। मतिज्ञान के शास्त्रों में मुख्य रूप से चार भेद किए गए हैं - अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा । यद्यपि मतिज्ञान के अन्य भी बहुत से भेदप्रभेद होते हैं, किन्तु मुख्य रूप में मतिज्ञान के इतने ही भेद हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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