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________________ १३८ .. समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि है । उसे कर्मों के स्वरूप का ज्ञान होता है और कर्मों; का विपाक कितना अशुभ होता है, यह भी वह जानता है, इसलिये अपने अपराधी के प्रति भी वह क्षमाशील रह सकता है। इस तरह वह आत्मा अपने कर्मों की निर्जरा द्वारा स्वयं का उपकार करता है और अपराधी के प्रति दया का भाव रख कर उस पर भी उपकार करता है। प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये पाँच सम्यक्त्व के लिंग है (i) प्रशम: ... शम का अर्थ है शमन अथवा शान्त होना । प्रकृष्ट शमन अथवा शान्त भाव को प्रशम कहा जाता है । वास्तविक रूप से तो, अनन्तानुबंधी कषाय जहाँ तक जोरदार विपाकोदय बाले होते हैं. तब तक आत्मा में प्रशम का सच्चा भाव प्रकट नहीं होता। जब अनंतानुबंधी कषाय का विपाकोदय मन्द कोटि का होता है, तब प्रशम का भाव अमुक अंश में प्रकटे, यह संभवित है। अनन्तानुबंधी कषायों के उदय की जैसे - जैसे मन्दता होती है वैसे वैसे प्रशम का भाव वृद्धि को प्राप्त कर सकता कषाय की परिणति को लेकर जीव को कैसे कड़वे फलों की प्राप्ति होती है, इस सम्बन्ध में विचारणा आदि करने से प्रशम का भाव पैदा भी हो सकता है और वृद्धि को भी प्राप्त कर सकता __ क्रोध के आवेग और विषयों की तृष्णा का शमन हो, इसे भी शम कहते हैं। जीवाजीवादि तत्त्वों के स्वरूप के सम्बन्ध में चलती हुई विविध बातों का विचार करके, आत्मा उसका परीक्षापूर्वक सच्चा निर्णय करे कि - जीवाजीवादि तत्त्वों का स्वरूप ऐसा ही हो सकता है अत: मिथ्या अभिनिवेश रूप दुराग्रह को छोड़कर आत्मा सत्य तत्त्व - स्वरूप का आग्रही बने, इसे भी शम कहते हैं। उक्त प्रकार का प्रशम, सम्यक्त्व का वास्तविक कोटि का लक्षण हैं। क्योंकि जो जीव सम्यक्त्व प्राप्त हैं, वही जीव परीक्षापूर्वक सत्य तत्त्व स्वरूप का निर्णय कर सकता है और उस सत्य तत्त्व स्वरूप का आग्रही बन सकता है। ऐसा प्रशम मिथ्यादृष्टि जीवों में प्रकट नहीं हो सकता, यह तो सरलता से समझा जा सकता हैं। (ii) संवेग : संवेग अर्थात् आत्मा की ओर गति । सामान्य अर्थ में इसका अर्थ अनुभूति के लिये भी प्रयुक्त होता हैं । अर्थात स्वाभूति, आत्मानुभूति अर्थात् आत्मा के आनन्दमय स्वरूप की अनुभूति । मनोपिक में आकांक्षा की तीव्रतम अवस्था को भी संवेग कहा जाता है। इस संदर्भ में इसका अर्थ होगा सत्य को जाने की तीव्रतम आकांक्षा । इसी से अज्ञान से ज्ञान की ओर प्रगति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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