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________________ १३६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि अन्य जो प्राणी संसार रूपी वैतरणी नदी में गिर रहे हैं, बह रहे हैं, उन्हें भी गिरने से, बहने से बचा सकता है। प्रभु महावीर का अमृतोमय उपदेश है कि: - परिजूरइ ते सरीरयं, केसा पंडुरया हवंति ते । ते सव्वबले य हायई, समयं गोयम मा पमायए ।। अर्थात् - शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं, सभी इन्द्रियों का बल घट रहा है, अतएव हे गौतम! समय - मात्र का भी प्रमाद मत करो। कहने का तात्पर्य यह है कि जब तक कर्म करने की शक्ति है, तभी तक धर्म भी हो सकता है। कहावत भी है कि - " जे कम्मे सूरा, ते धम्मे सूरा।" जीवन में सम्यग्दृष्टिपने के बलबूते से, आत्मीय गुणों में रमण करते हुए, निष्ठापूर्वक अपने व्रतों का परिपालन करते हुए स्वरूप का विकास करें और फिर अन्य जो धर्म से विमुख बने हुए हैं, उन्हें भी धर्म में स्थिर कर कर्म - निर्जरा का पथ प्रशस्त करें । (७) स्वधर्मी वात्सल्य : भावना का आचरण करने योग्य आठ सम्यक्त्व के आचारों को भव्य आत्माओं को आन्तरिक जीवन में ओतप्रोत कर लेना चाहिये। सातवें स्थान पर जिस आचार का वर्णन आया है, वह है वात्सल्य । माता का पुत्र के प्रति अद्वितीय वात्सल्य रहता है, वह पुत्र के लिए सब कुछ सहन कर लेती है, अनन्य भाव से उसका परिपालन करती है। यह सारी चर्या उस माँ की वात्सल्य प्रतीक है। इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी पर सम्यक् ष्टि का निःस्वार्थ वात्सल्य बन जाय तो प्रत्येक आत्मा के साथ अनन्य भाव पैदा किये जा सकते हैं। प्रत्येक के साथ आत्मवत् व्यवहार की स्थिति प्राप्त होती है। जो मानव चिन्तनशील है, वह अपने वात्सल्य भाव का विस्तार करना सीखे। जब भगवान महावीर को चण्डकौशिक ने डंक मारा, तो भगवान के पैर के अंगूठे से दूधवत् धारा छूट पड़ी। यह उनकी प्रत्येक आत्मा के प्रति अपूर्व आत्मीयता, अद्वितीय वात्सल्यता का प्रतीक थी । यह माता के जीवन से भी बढ़कर भगवान के जीवन का वात्सल्य भाव था। डंक मारने वाले के प्रति भी वह नि:स्वार्थ वात्सल्य भावना दूध की धवलता के रूप में निर्झरित हुई। प्रतिबोधित कर दिया उस चंडकौशिक को। पर आज कहाँ है निःस्वार्थ वात्सल्य - भावना ? कहाँ है वह सम्यग्दृष्टि का आचार ? कहाँ है साधर्मी के प्रति सहयोग की भावना ? - वात्सल्य भावना तो अन्तर की होती है। प्रभु महावीर ने कहा कि - " हे आत्मन् ! तू सम्पूर्ण विश्व के साथ वात्सल्य भाव रख। यदि इतना न हो सके तो कम से कम परिवार वालों के Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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