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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय १३३ का, प्रशस्त भावनाओं का, सुफल शब्द द्वारा अकथनीय अनुभवगम्य आत्मऋद्धि के रूप में उपलब्ध होगा। दसवैकालिक सूत्र के प्रथम अध्ययन की प्रथम गाथा का सार ' (संक्षेप) यह स्पष्ट करता है कि जिसका मन, उत्कृष्ट धर्मरूप मंगलअहिंसा, संयम, तप में निरन्तर लगा रहता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं। एक लौकिक दृष्टान्त से भी इस बात की श्रद्धा हो सकती है। जैसे कि, एक निष्णात वैद्य ने रत्ती रत्ती भर एक लाख चीजें इकट्टी कर उनको बारीक पीसकर एक एक रत्ती की एक लाख गोलियाँ बनायी। उस प्रत्येक गोली में एक लाख वस्तु हैं या नहीं ? यह कौन जाने और कौन माने ? या तो वैद्य या उनको पीसने वाला । वह भी यदि समझदार हो तो। इसके अतिरिक्त दूसरे जिन - जिनको उन दोनों के वचनों पर विश्वास हो वे उस बात को मानते हैं, शेष तो नहीं मानते हैं न? वैद्य रोगी को कहता है कि - यह दवा बहुत कीमती है। इतनी छोटीसी गोली में एक लाख औषध हैं, मामूली दवा नहीं। तब वह रोगी कहता है कि - मुझे आँख से बताओ तो मानें, तो उसे कैसे बताया जा सकता है ? उस समय वैद्य को कहना पडता है कि - तुम्हे देखना ही हो तो मेरे कहे अनुसार एक लाख वस्तु ले आओ, पीसो और गोलियाँ बनाओ। परन्तु उसकी वैसा करने की कोई तैयारी न हो तो फिर वैद्य कहता है कि - सूंघकर देख लो, तुम्हारी घ्राणेन्द्रिय तेज होगी तो इस रीति से भी तुम जान सकोगे। उसमें यह भी शक्ति न हो तो वैद्य को कहना पड़ता है कि तुम्हें मेरे वचन पर श्रद्धा हो तो मानो और दवा खाओ नहीं तो तुम्हारा भाग्य ! (२) निष्कांक्षता: ऐहिक और पारलौकिक विषयों की अभिलाषा करना । यदि ऐसी कांक्षा होगी तो साधक गुण - दोष का विचार किए बिना ही चाहे जब अपना सिद्धान्त छोड़ देगा, इसीलिए उसे अतिचार कहा गया है। साधनात्मक जीवन में भौतिक वैभव, एहिक तथा पारलौकिक सुख को लक्ष्य बनाना ही जैन दर्शन के अनुसार “कांक्षा' है। किसी भी लौकिक और पारलौकिक कामना को लेकर साधनात्कम जीवन में प्रविष्ट होना जैन विचारणा को मान्य नहीं है। वह ऐसी साधना को वास्तविक १. धम्मो मंगलमुक्किठं अहिंसा संजमो तवो। देवा वि तं नमंसन्ति जस्स धम्मे सया मणो॥ १. रत्नकरण्डकश्रावकाचार, १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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