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________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय जान लेता है, सदाचरण को पहचान लेता है, तब उसकी दृष्टि सम्यक् कहलाती है। सांसारिक दुःखो की प्रकृति को जानते हुए सत्काय दृष्टि, आत्मवाद आदि सिद्धान्तों से विरक्त होना इसका फल है। इसी से समभाव प्राप्त हो जाता है। ___ बौद्ध परम्परा में श्रद्धा अन्धविश्वास नहीं, वरन् एक बुद्धि - सम्मत अनुभव है। यह विश्वास करना नहीं, वरन् साक्षात्कार के पश्चात् उत्पन्न तत्त्व निष्ठा है। बुद्ध को विवेक और समीक्षा सदैव स्वीकृत रहे हैं। जब तक मनुष्य तत्त्व को देख या सुन नहीं लेता, तब तक उसकी, श्रद्धा स्थिर नहीं होती । साधना के क्षेत्र में प्रथम श्रद्धा एक परिकल्पना के रूप में ग्रहण होती है। और वही अन्त में तत्त्वसाक्षात्कार बन जाती है। बुद्ध ने श्रद्धा और प्रज्ञा दोनों का समन्वय किया .. अंगुत्तरनिकाय में बुद्ध कहते हैं कि “भिक्षुओ, मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता, जिससे अनुत्पन्न अकुशल - धर्म उत्पन्न होते हो तथा उत्पन्न अकुशल धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओं मिथ्या दृष्टि। भिक्षुओ मिथ्यादृष्टि वाले में अनुत्पन्न अकुशल - धर्म पैदा हो जाते हैं । उत्पन्न अकुशल - धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं। भिक्षुओं, मैं दूसरी कोई भी एक बात ऐसी नहीं जानता जिससे अनुत्पन्न कुशल - धर्मों में वृद्धि होती हो, विपुलता होती हो, जैसे भिक्षुओ, सम्यक्दृष्टि । भिक्षुओ, सम्यकदृष्टि वाले में अनुत्पन्न कुशल धर्म उत्पन्न हो जाते है उत्पन्न कुशल - धर्म वृद्धि को, विपुलता को प्राप्त हो जाते हैं। बुद्ध सम्यक्-दृष्टि को नैतिक जीवन के लिए आवश्यक मानते हैं। उनकी दृष्टि में मिथ्था दृष्टिकोण संसार का किनारा है और सम्यक् दृष्टिकोण निवार्ण का किनारा है।''३ दोनों साधनाओं में सम्यग्दर्शन का समान महत्त्व है ! सम्यग्दर्शन के बिना साधक चतुर्गति भ्रमण करता है और करोड़ों वर्षों तक कठोर तपश्चरण करते हुए भी रत्नत्रय रूप बौधि को प्राप्त नहीं करता। २. अंगुत्तरनिकाय १/१७ १. बुद्धवचन पृ० २१ ३. अंगुत्तरनिकाय १०/१२ ४. षठ प्राभृत १.४-५ थरेगाथा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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