SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 151
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दर्शन में समत्व प्राप्त करने का साधन रत्नत्रय प्रसिद्ध कवि आनन्दघन ने भी 'अनन्त जिन स्तवन' में कहा है - देवगुरू धर्मनी शुद्धि कहो किम रहे, किम रहे शुद्ध श्रद्धान आणी । शुद्ध श्रद्धा बिना सर्व किरिया करी, छार पर लींपणु तेंह जाणो || जिस प्रकार राख पर लीपना व्यर्थ है, उसी प्रकार बिना शुद्ध श्रद्धा के सभी प्रकार की क्रियाएँ व्यर्थ रहती है। 'सम्यक्त्व कौमुदी' में सम्यक्त्व की महिमा बताते हुए कहा गया है कि 'सम्यक्त्वरत्नान्नपरं हि रत्नं, सम्यक्त्वमित्रान परं हि मित्रम् । सम्यक्त्वबंधोर्न परो हि बंधुः, सम्यक्त्वलाभान्न परो हि लाभः || १. मनुस्मृति, ६ । ७४ अर्थात्संसार में ऐसा कोई रत्न नहीं है जो सम्यक्त्व रत्न से बढ़कर मूल्यवान हो। सम्यक्त्व मित्र से बढ़कर कोई मित्र नहीं हो सकता, न बन्धु ही हो सकता और न सम्यक्त्व लाभ से बढ़कर कोई लाभ ही हो सकता है। Jain Education International १२९ आचारांग सूत्र के अनुसार - 'जो सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हो जाते हैं, जिनका विश्वास आत्मा, ईश्वर, पाप, पुण्य आदि सिद्धान्तों से उठ जाता है, उनका सम्यग्दर्शन भी नष्ट हो जाता है। वे ज्ञान भ्रष्ट होकर मिथ्यात्वी हो जाते हैं । मिथ्यात्वी हो जाने पर उनका लक्ष्य केवल भोग भोगना, संसार सुख प्राप्त करना, संसारिक वैभव एकत्रित करना ही रह जाता है । इस कारण उनका ज्ञान मिथ्याज्ञान है और वे मिथ्यात्वी हैं। इस प्रकार दर्शन से पतित आत्माएँ, ज्ञानभ्रष्ट हो जाया करती हैं । 'नाणब्भट्टा दंसणलूसिणो । ३. वैदिक परम्परा में सम्यक् दर्शन : वैदिक परम्परा में भी सम्यक् दर्शन को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। मनुस्मृति में कहा गया है कि सभ्यक् दृष्टिसम्पन्न व्यक्ति को कर्म का बन्धन नहीं होता है लेकिन सम्यक् दर्शन से विहीन व्यक्ति संसार में परिभ्रमण करता रहता है। १ For Private & Personal Use Only आ० ६, १८७३.४ www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy