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________________ १२६ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि स्वामी कार्तिकेय ने सम्यक्त्व के उपशाम, क्षयोपशम और क्षायिक भेदों का स्वरूप कहकर बताया कि प्रथम दो सम्यक्त्वों को तो यह जीव असंख्य बार ग्रहण करता और छोड़ता है, किन्तु क्षायिक को ग्रहण करने के बाद वह छ्टता नहीं और उसे तीसरे और चौथे भव में निर्वाणपद प्राप्त कराता है। इन्होंने वीतराग देव, दयामय धर्म और निग्रन्थ गुरू के माननेवाले को व्यवहार सम्यग्दृष्टि और द्रव्यों को और उनके सर्व पर्यायों को निश्चय रूप से यथार्थ जानता है, उसे शुद्ध सम्यग्दृष्टि कहा है। सम्यक्त्व सर्व रत्नों में महा रत्न है, सर्व योगों में उत्तम योग है, सर्व ऋद्धियों में महाऋद्धि और यही सभी सिद्धियों को करनेवाला है। सम्यग्दृष्टि दुर्गाति के कारणभूत कर्म का बन्ध नहीं करता है और अनेक भव - बद्ध कर्मों का नाश करता है। ___आचार्य अमृतचन्द्र ने बताया कि मोक्षप्राप्ति के लिए सर्व प्रथम सभी प्रयत्न करके सम्यक्त्व का आश्रय लेना चाहिए, क्योंकि इसके होने पर ज्ञान और चारित्र होते हैं। इन्होंने जीवादि तत्त्वों के विपरीताभिनिवेशरहित श्रद्धा को सम्यक्त्व कहा । निर्विचिकित्सा अंग के वर्णन में यहाँ तक कहा कि इस अंग के धारक को मल - मूत्रादि को देखकर ग्लानि नहीं करनी चाहिए। उवगूहनादि शेष चार अंगो का स्व और पर की उपेक्षा किया गया वर्णन अप्रूव है। . चामुण्डराय ने जिनोपदिष्ट मोक्षमार्ग के श्रद्धा को सम्यक्त्व का स्वरूप बतलाकर सम्यक्त्वी जीव के संवेग, निर्वेग, आत्मनिन्दा, आत्मगर्हा, शमभाव, भक्ति अनकम्पा और वात्सल्य गणों का भी निरूपण किया। ___आचार्य अमितगति ने अपने ‘उपासकाचार' के दूसरे अध्याय में सम्यक्त्व की प्राप्ति, और उसके भेदों का विस्तृत स्वरूप - वर्णन करते हुए लिखा है कि वीतराग सम्यक्त्व का लक्षण उपेक्षाभाव है और समग्र सम्यक्त्व का लक्षण प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य भावरूप है। इनका बहुत सुन्दर विवेचन करते हुए सम्यक्त्व के श्रद्धा, भक्ति आदि आठ गुणों का वर्णनकर अन्त में लिखा है कि जो एक अन्तर्मुहूर्त को भी सम्यक्त्व प्राप्त कर लेते हैं वे भी अनन्त संसार को सान्त कर लेते हैं। ____ आचार्य वसुनन्दिने सम्यक्त्व का स्वरूप बताकर कहा है कि उसके होने पर जीव में संवेग, निर्वेद, निन्दा, गर्हा, उपशमभाव, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा, ये आठ गुण प्रकट होते हैं। वस्तुत: सम्यक्त्वी पुरुष की पहिचान ही इन आठ गुणों से होती हैं। सावयधम्म दोहाकार ने सम्यक्त्व की महिमा बताते हुए लिखा है कि जहाँ पर गरूड़ बैठा हो, वहाँ पर क्या विषधर सर्प ठहर सकते हैं, इसी प्रकार जिसके हृदय में सम्यक्त्व गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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