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________________ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि आचार्य उमास्वति ने जब यह उद्घोष किया “सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः, " तब उनका सम्यग्दर्शन व ज्ञान से तात्पर्य, नव तत्त्व - जीव, अजीव, पुण्य-पाप, आश्रवसंवर, निर्जरा, बंध व मोक्ष या संक्षेप में दो तत्त्वः जीव और अजीव में श्रद्धा व उनकी जानकारी से था । जीव और अजीव की आपसी क्रिया एवं प्रतिक्रिया से यह संसार है और उसकी प्रतिक्रिया के स्वरूप को जानना व उसमें श्रद्धा करना सम्यक्त्व है। जिसने इस संसार रचना के मूल को जान लिया उसने सब कुछ जान लिया। और जानकारी के बाद अपने पुरुषार्थ से वह इस चक्र से निकल जाता है। जब तक वह मूल स्वरूप को न समझकर वस्तु-जाल में दिग्भ्रमित हो घूमता है, तब तक वह संसार-चक्र में आवर्तन करता है। इस दृष्टि से सम्यक्त्व का अर्थ आत्मा व इससे जुड़े कर्म एवं वस्तु-स्वरूप को जानना व उसमें श्रद्धा करना है। १२४ जीवादिसद्दहणं सम्मत्तं जिणवेरहिं पण्णतं । ववहारा णिच्छयदो, अप्पा णं हवई सम्मत्तं ॥ ( दर्शन पाहुड) अर्थात् व्यवहार से जीव आदि (तत्त्वों) से श्रद्धा सम्यक्त्व (सम्यग्दर्शन) (है), निश्चय से आत्मा ही सम्यक्त्व होती है। (ऐसा ) अरहंतो द्वारा कहा गया ( है ) । वस्तुतत्त्व के प्रति दृष्टिकोण की यथार्थता जिन माध्यमों से प्राप्त की जा सकती है, वे दो हैं - या तो व्यक्ति स्वयं तत्त्व - साक्षात्कार करे अथवा उन ऋषियों के कथनों पर श्रद्धा करे जिन्होने तत्त्व - साक्षात्कार किया है। तत्त्वश्रद्धा तो मात्र उस समय तक के लिए एक अनिवार्य विकल्प है जब तक साधक तत्त्व साक्षात्कार नहीं कर लेता। अन्तिम स्थिति तो तत्त्व - साक्षात्कार की ही है । पं. सुखलालजी लिखते है, तत्त्वश्रद्धा ही सम्यक् दृष्टि हो तो भी वह अर्थ अन्तिम नहीं है, , अन्तिम अर्थ तो तत्त्व - साक्षात्कार है । तत्त्व- श्रद्धा तो तत्त्वसाक्षात्कार का एक सोपान मात्र है, वह सोपान दृढ़ हो तभी यथोचित पुरुषार्थ से तत्त्व का साक्षात्कार होता है। ' उत्तराध्ययनसूत्र में स्पष्ट कहा है कि सम्यग्दर्शन के बिना सम्यक् ज्ञान नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के अभाव में सदाचार नहीं आता और सदाचार के अभाव में कर्मावरण से मुक्ति सम्भव नहीं और कर्मावरण से जकड़े हुह प्राणी का निर्वाण नहीं होता । सूत्रकृतांग सूत्र में स्पष्ट कहा गया है कि कोईक्ति विद्वान् है, भाग्यवान है और पराक्रमी भी है; लेकिन यदि उसका दृष्टिकोण असम्यक् है तो उसका दान, तप आदि समस्त पुरुषार्थ फलाकांक्षा १. जैन धर्म का प्राण, पृ० २८ २. उत्तराध्ययन. २८/३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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