SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि कार्य हो, तो फिर वह कारण अमुक एक कार्य का ही कारण क्यों हो, दूसरे कार्य का कारण क्यों नहीं ? जबकि कारण से कार्य का दूरत्व एवं भिन्नत्व उभयत्र समान ही है। अत: निश्चय की भाषा में जहाँ मोक्ष है वहीं उसका मार्ग भी रहेगा, वही उसका साधन अर्थात् कारण भी रहेगा। मोक्ष रहता है आत्मा में, अत: उसका मार्ग भी आत्मा में ही रहता है। मोक्ष मार्ग क्या है ? सम्यक दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र । तीनों आत्मा के निज स्वरूप ही हैं, फिर आत्मा से अलग कैसे रह सकते हैं। अत: मोक्ष और मोक्ष का मार्ग दोनों सदा आत्मा में ही रहते हैं, आत्मा से कहीं बाहर नहीं रहते। आत्मा का मोक्ष कार्य है और सम्यग्दर्शनादि धर्म मोक्ष का कारण है। मोक्ष और मोक्ष का साधनधर्म दोनो ही आत्मस्वरूप हैं। क्योंकि जब सम्यग्दर्शन आदि आत्म स्वरूप हैं, तो उनका कार्य मोक्ष भी आत्मस्वरूप ही होना चाहिए। अतएव मोक्ष का लोक आत्मा है, आकाश - विशेष नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि कारण चैतन्य में हो, और उसका कार्य जड़ में हो जाए। चित् का कार्य चित् में ही हो सकता है और वह चिद्रूप ही हो सकता है। अध्यात्म शास्त्र में साधक की साधना का एक मात्र ध्येय है - वीतराग भाव एवं स्वरुप रमणता । अपने स्वरूप में स्व के रमण को ही जैन दर्शन सम्यक् दर्शन, सम्यक्ज्ञान और सम्यक् चारित्र कहता है। सम्यक् दर्शन क्या वस्तु है और उसका क्या स्वरूप है ? इसकी चर्चा मैं विस्तार के साथ आगे करूंगी, किन्तु यहाँ पर आप सम्यक् दर्शन का इतना ही अर्थ समझ ले कि अपने आत्मस्वरूप की प्रतीति, आत्मस्वरुप का विश्वास और आत्मस्वरूप पर आस्था होना ही सम्यक् दर्शन है। अध्यात्मवादी दर्शन यह कहता है, कि आपको ईश्वर की सत्ता पर आस्था हो या न हो, परन्तु स्वयं अपनी आत्मा की सत्ता पर आस्था होना सबसे बड़ी बात है। सम्यक्दर्शन आत्मसत्ता की आस्था है। सम्यक् दर्शन आत्मा का स्वरूप - विषयक एक द्रढ़ निश्चय है। मैं कौन हूँ ? मैं क्या हूँ ? मैं कैसा हूँ ? इसका अन्तिम निर्णय एवं निश्चय ही सम्यक् दर्शन है। संसार में अनन्त पदार्थ हैं, अनन्त चेतन और अनन्त जड़ हैं। जड़ और चेतन में भेदविज्ञान करता, यही सम्यक् दर्शन का वास्तविक उद्देश्य है। स्व और पर का, आत्मा और अनात्मा का, चैतन्य और जड़ का जब तक भेद-विज्ञान नहीं होगा, तब तक यह नहीं समझा जा सकता कि साधक को स्व-स्वरूप की उपलब्धि हो गई है। स्व-स्वरूप की उपलब्धि होते ही, यह आत्मा अहंता और ममता के बन्धनों में बद्ध नहीं रह सकती। जिसे आत्म-बोध एवं चेतना बोध हो जाता है, वही आत्मा यह निश्चय कर सकती है, कि मैं शरीर नहीं हूँ, मैं मन नहीं हूँ, क्योंकि यह सब कुछ भौतिक है एवं पुद्गलमय है। इसके विपरीत मैं चेतन हूँ, आत्मा हूँ तथा मैं अभौतिक हूँ, पुद्गल से सर्वथा भिन्न हूँ। मैं पुद्गल हूँ और पुद्गल कभी ज्ञानस्वरूप नहीं हो सकता। जबकि आत्मा और पदगल में इस प्रकार मूलत: एवं स्वरूपतः विभेद है, तब दोनों को एक मानना अध्यात्मक्षेत्र में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy