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________________ ११८ समत्व योग - एक समन्वय दृष्टि रत्नत्रयी में आत्मा के समग्र अध्यात्मगुणों का कथन हो जाता है ।। अतीत काल के तीर्थंकरों ने, गणधरों ने और श्रुतधर आचार्यों ने इसी रत्नत्रयी के साध्य की सिद्धि के लिए उपदेश दिया है और अनन्त अनागत काल में भी इसी का उपदेश दिया जाता रहेगा। जैनदर्शन की साधना समत्वयोग की साधना है, सामायिक की साधना है एवं समभाव की साधना है । साधक चाहे गृहस्थ हो अथवा साधू हो, उसकी साधना का एकमात्र लक्ष्य यही है, कि वह विषमता से समता की ओर अग्रसर हो। विषमभाव से निकलकर समभाव में रमण करे । इस समत्व योग में कौन कितना और कब तक रमण कर सकता है, यह प्रश्न अलग है और वह साधक की अन्तः शान्ति पर निर्भर करता है। परन्तु निश्चय ही अबल और सबल दोनों ही प्रकार के साधकों के जीवन का लक्ष्य आत्मा के निजगुण स्वरूप अनन्त ज्ञान और अनन्त सुख को प्राप्त करने का है। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए अथवा साध्य की सिद्धि के लिए, जैन दर्शन ने रत्नत्रयी का विधान किया है। रत्नत्रयी का नाम ही मोक्ष मार्ग है। मार्ग का अर्थ यहाँ पर पथ एवं रास्ता नहीं है, बल्कि, मार्ग का अर्थ है -- साधन एवं उपाय। मोक्ष का मार्ग कहीं बाहर में नहीं है, वह साधक के अन्तर - चैतन्य में ही है. उसकी अन्तरात्मा में ही है। साधक को जो कुछ पाना है, अपने अन्दर से पाना है। विविध शास्त्र के अध्ययन और चिन्तन से यह ज्ञात होता है कि आत्मा की उच्चतम एवं पवित्रतम स्थिति को सिद्धि, सिद्धत्व, अपुनरावृत्ति, मुक्ति, निर्वाण तथा मोक्ष - इत्यादि विविध संज्ञाओं से कहा गया है। इस सम्बन्ध में अध्यात्मवादी दर्शन में सबसे बड़ा प्रश्न यह है, कि मोक्ष एवं मुक्ति आत्मा का स्थान - विशेष है अथवा आत्मा की स्थिति - विशेष है ? सिद्धशिला और सिद्धलोक जैसे शब्द स्थान - विशेष की ओर संकेत करते हैं। तब क्या यह माना जाए कि कर्म - विमुक्त आत्मा का भी, अपना कोई रहने का स्थान है, जहाँ वह शाश्वत रूप में अनन्त काल तक आवास करती रहती है। व्यवहार - नय से यह कथन सत्य है, इसमें किसी प्रकार का भेद एवं विभेद नहीं है। परन्तु निश्चय - नय से विचार करने पर मोक्ष आत्मा का स्थान नहीं, बाल्कि एक स्थिति - विशेष ही है। मोक्ष और उसका मार्ग, साध्य और उसका साधन, क्या अलग - अलग हो सकते है ? । निश्चय - नय की दृष्टि से साधन और साध्य में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता। अध्यात्मवादी दर्शन में मोक्ष और उसके मार्ग में किसी प्रकार का भेद नहीं किया जा सकता । मार्ग की, साधन की पूर्णता का नाम ही मोक्ष है। उक्त अभेद दृष्टि के अनुसर मोक्ष किसी क्षेत्र अथवा आकाश - विशेष में नहीं होता है, वह तो आत्मा में ही होता है। जहाँ आत्मा है, वहीं उसका मोक्ष है। आत्मा कहीं - न - कहीं रहेगा ही । और वह आत्मा के ठहरने का स्थान है, क्योंकि आत्मा एक द्रव्य है, और जो द्रव्य होता है, वह कही - न - कहीं रहेगा ही, आकाश के किसी - न - किसी देश - विशेष का अवगाहन करेगा ही। यह सम्भव नहीं है, कि आत्मा द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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