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________________ ११० समत्वयोग-एक समनवयदृष्टि तक वे सम्यग्ज्ञान की बातों को ग्रहण करने के लिए तैयार ही कैसे हो सकते हैं ? समभावी आचार्य हरिभद्रसूरि के परामर्श के अनुसार समतायोगी साधक को उस समय ऐसा चिन्तन करना चाहिए । स्वस्वकर्मकृतावेशाः स्वस्वकर्मभुजो नराः । न रागं, नापि च द्वेषं, मध्यस्थस्तेषु गच्छति ॥ सभी मनुष्य अपने-अपने शुभाशुभ कर्मकृत संस्कारों के कारण अपनेअपने कर्मों का फल भोगते हैं । इसलिए जो व्यक्ति अनुरागी बनकर समतायोगी की बात सुनते हों, उनके प्रति राग और जो न सुनते हों, उनके प्रति विरोध और जो द्वेष रखते हों, उनके प्रति द्वेष न रखना चाहिए - साधक को मध्यस्थ रहना चाहिए। मध्यस्थ का कार्य राग-द्वेष रहित होकर हंस की तरह नीर-क्षीर विवेक करना है। आचार्य हरिभद्र की यह सूक्ति मध्यस्थ के मन में अंकित हो जाती है स्वागमं रागमात्रेण द्वेषमात्रात् परागमम् । न श्रयामस्त्यजामो वा किन्तु मध्यस्थया दृशा । पक्षपातो न में वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु । युक्तिमद्वचनं यस्य तस्य कार्यं परिग्रहः ॥ हम न तो अपने माने हुए शास्त्र को रागमात्र(स्वत्वमोह)वश पकड़ेंगे, और न ही दूसरों के माने जाने वाले शास्त्र को द्वेषमात्र (घृणा या पूर्वाग्रहवश) से प्रेरित होकर छोड़ेंगे, किन्तु राग-द्वेष रहित होकर मध्यस्थ दृष्टि से विवेक करके ही किसी शास्त्र का या शास्त्र के अमुक वाक्य का ग्रहण या त्याग करेंगे। माध्यस्थ्य गुण की सार्थकता बताते हुए एक आचार्य कहते हैं : रागकारणसम्प्राप्ते न भवेद् रागयुग्मनः । द्वेषहेती न च द्वेषस्तस्मान् माध्यस्थ्यगुणः स्मृतः ॥ राग (मोह या आसक्ति) का कारण प्राप्त होने पर जिसका मन रागयुक्त नहीं होता और द्वेष (घृणा, ईर्ष्या, वैरविरोध, रोषादि) का कारण प्राप्त होने पर जिसे द्वेष नहीं होता, अर्थात् राग और द्वेष दोनों में मध्यस्थ का मन तटस्थ होने से उसके गुण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002545
Book TitleSamatvayoga Ek Samanvay Drushti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPritam Singhvi
PublisherNavdarshan Society of Self Development Ahmedabad
Publication Year
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size15 MB
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