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________________ काव्यादि के माध्यम से दिया गया उपदेश अत्यधिक सफल एवं प्रभावक होता है। यही कारण है कि जीवन-हित-साधक, साधु-संत, आचार्य, धर्मोपदेशक अपने उपदेश को सामान्य जनता तक पहुँचाने के लिए काव्यभाषा का उपयोग करते हैं। आर्षवाणी-आगम में अनेक रमणीय काव्यसंपदाओं का उपयोग किया गया है। रस, गुण, अलंकार, रीति, छन्द, बिम्ब, प्रतीक, सौन्दर्य आदि काव्यात्मक सरणियों की उपस्थिति आगम साहित्य में हमें प्राप्त होती है। 1. रस आगम-साहित्य में संसार-तृष्णा के क्षय रूप निर्वेद से समुत्पन्न शान्तरस का आधिक्य है। वीर, शृंगार, बीभत्स आदि रसों का भी प्रयोग हुआ है। इनका न केवल व्यावहारिक विनियोजन ही हुआ है, अपितु रसों का सैद्धान्तिक विवेचन स्पष्ट रूप से प्राप्त होता है। अनुयोगद्वार में रसों-वीर, शृंगार, अद्भुत, रौद्र, वीडनक, बीभत्स, हास्य, करुण और प्रशांत का सुन्दर विवेचन हुआ है। वहाँ रसों के क्रम-व्यत्यय एवं मान्यता में थोड़ा सा अन्तर दिखाई पड़ता है। काव्यशास्त्र के नौ रसों में परिगणित भयानक रस यहाँ नहीं है। वृत्तिकार ने भयानक रस को रौद्ररस में अन्तर्भूत मानकर आगम मत का पोषण किया है। इस परम्परा में एक व्रीडनक रस का उल्लेख है, जो काव्यशास्त्र के किसी ग्रंथ में उल्लिखित नहीं है। यह रस वस्तुतः संयम (लज्जा) का द्योतक है। आगमों में व्रीडा-लज्जा आदि को इन्द्रिय-संयमन के रूप में अधिक महत्त्व दिया गया है। मुनियों के लिए आवश्यक माना गया है। आचारांग में "लज्जमाणा पुढो पास आदि सूक्तियों का अनेक बार प्रयोग हुआ है। शांत रस- अनुयोगद्वार में शान्तरस का स्वरूप एवं उदाहरण दोनों उपन्यस्त हैं पसंतरसलक्खणं निद्दो समणसमाहाणसं भवो जो पसंतभावेणं। अविकारलक्खणो सो रसो पसंतो ति नायो।। अर्थात् स्वस्थ मन की समाधि (एकाग्रता) और प्रशांत भाव से शान्त रस उत्पन्न होता है। अविकार उसका लक्षण है। उदाहरण- सम्भावनिबिगारं उवसंत-पसंत-सोम-दिट्ठीयं। ही! जण मुणिणो सोहइ मुहकमलं पीवरसिरीयं।। अर्थात् स्वभाव से निर्विकार, प्रशांत, सौम्यदृष्टि युक्त और पुष्ट कान्ति वाला मुनि का मुखकमल सुशोभित हो रहा है। यहां प्रशांत (निर्वेद) स्थायी भाव है। संसार की दुःखरूपता आलम्बन एवं शांत वातावरण उद्दीपन विभाव है। ध्यान, स्वाध्याय शिक्षा - 59 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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