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________________ जैनागमों में अहिंसा श्री रतनलाल बाफना जैनागमों में अहिंसा का व्यापक प्रतिपादन हुआ है। अहिंसा जहाँ व्यक्तिगत जीवन को सुखी एवं शान्त बनाती है वहाँ जगत् के समस्त प्राणियों के जीवन एवं समानता का अधिकार सुरक्षित करती है। प्रेम एवं मैत्री का वातावरण अहिंसा के बिना संभव नहीं। आगमों में अहिंसा के पालन हेतु महाव्रत एवं अणुव्रत का विधान है। अखिल भारतीय श्री जैन रत्न हितैषी श्रावक संघ के अध्यक्ष तथा सदाचार-शाकाहार एवं अहिंसा के प्रति सर्वतः समर्पितचेता श्री रतनलाल जी बाफना ने इस लेख में आगमों में उपलब्ध अहिंसा-विषयक कथनों का संकलन करते हुए अहिंसा के महत्त्व को प्रतिष्ठित किया है। -सम्पादक दुनिया के प्रायः सभी धर्म-दर्शन अहिंसा को सैद्धान्तिक रूप से स्वीकार करते हैं। जैन धर्म-दर्शन का तो प्राण ही अहिंसा है। प्रत्येक आगम में अहिंसा की महत्ता व हिंसा के दुष्परिणामों का वर्णन स्थान-स्थान पर स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। आज पूरे विश्व में हिंसा का ताण्डव नृत्य चल रहा है। आदमी पशु-प्राणियों को ही नहीं, आदमी को भी अपने थोड़े से स्वार्थ के लिए कत्ल करते नहीं चूकता। कहा भी है *आदमी की शक्ल से अब डर रहा है आदमी, आदमी को लूट कर घर भर रहा है आदमी। आदमी ही मारता है मर रहा है आदमी, समझ कुछ आता नहीं, क्या कर रहा है आदमी।।" "आदमी अब जानवर की सरल परिभाषा बना है, ध्वंस करने विश्व को आज दुर्वासा बना है। क्या जरूरत राक्षसों की खून पीने आदमी का, आदमी ही आदमी के खून का प्यासा बना है।।" प्राणिमात्र की रक्षा करना हमारा परम कर्तव्य है। परन्तु दुःख के साथ कहना पड़ता है कि राम, कृष्ण और महावीर की पावन भूमि पर लाखों प्राणी प्रतिदिन मौत के घाट उतार दिये जाते हैं। इतिहास साक्षी है कि इस देश में राजा मेघरथ ने एक प्राणी के प्राण बचाने के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने की तैयारी कर ली। धर्मरुचि अणगार ने नन्हें-नन्हें कीड़े-मकोड़ों की रक्षा के लिए मृत्यु का वरण कर लिया, उसी पवित्र वसुन्धरा पर २५ लाख मुर्गे, ३ लाख बकरे व २५ हजार गो वंश का रोजाना खून बहाया जाता है। इन मूक, असहाय, बेजुबान प्राणियों की स्वाध्याय शिक्षा 89 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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