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________________ ध्यान का लक्ष्य-लब्धियाँ एवम् मोक्ष (२४०) है। यह स्थिति केवल मन के द्वारा ही की जा सकती है, यह इन्द्रियों काल आदि से नहीं जानी जा सकती।x जैन परम्परा में मोक्ष : वैसे तो सभी सम्प्रदायों में मोक्ष को बहुत ही महत्व दिया है लेकिन जैन परम्परा में मोक्ष का स्थान सर्वोपरि माना गया है । साधक आत्मविकास की सीढ़ियों को क्रमशः पार करता हआ जब मात्म स्वरूप को पूरी तरह से पहचान लेता है और आत्म विकास की पराकाष्ठा पर पहुँच जाता है तब उसकी वह स्थिति मोक्ष हो है । मनुष्य की योनि मे ही जीव को मोक्ष की प्राप्ति सम्भव होती है । बन्ध हेतुओं के अभाव और निर्जरा से सब कर्मो का आत्यन्तिक क्षय होना ही मोक्ष है । * साधक जब आत्मा एव बन्ध को अलग-अलग कर देता है तो वही मोक्ष कहलाता है। + जब बन्धावस्था को प्राप्त जीव और कर्मो के प्रदेश सदा के लिए एकदूसरे से अलग हो जाते हैं अर्थात् किसी भी कर्म का आत्मा के साथ किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं रह पाता तो यही मोक्ष की अवस्था है । ... आत्मा कर्ममल, रागद्वेष मोह और शरीर को जब अपने से हमेशा के लिए विलग कर लेती है, तब उसे ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप जो विलक्षण अवस्था प्राप्त होती है वह x वही पृ० ३३२ (क) बन्ध हेत्वाभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः । (तत्त्वार्थ सूत्र १०/२) (ख) राजवार्तिक १/४/२०/२७/११ (ग) आप्तपरीक्षा ११६ । (घ) मोक्षः कर्मक्षयो नाम भोग संक्लेश वणितः [पूर्वसेवाद्वा त्रिशिका, २२] (ड.) स्याद्वादमंजरी २७/३०२ । + आत्मबन्धयोद्विधाकरणं मोक्षः। (समयसार, आ० २८८) ... आत्यन्तिक-स्वहेतोर्यो विश्लेषो जीव-कमणोः।। स मोक्ष फलमेतस्य ज्ञानाद्याः क्षायिकाः गुणाः ॥ [तत्त्वानुशासन २३०]
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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