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________________ (१६२) नैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप : एक समीक्षात्मक अध्ययन ___ संस्थान विचय धर्म ध्यान में इससे सम्बन्धित अनुप्रेक्षाओं के विचार करने को कहा गया है जबकि शास्त्रसार समुच्चय में अनित्यादि सभी बारह अनुप्रेक्षाओं के चिन्तवन करने को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहा है। + इसी तरह का वर्णन हमें अन्य स्थानों पर भी प्राप्त हआ है। तीनों लोकों के संस्थान, प्रमाण और आयु आदि के चिन्तन को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहते हैं । - इस मत को अधिकतर सभी ग्रन्थकारों ने स्वीकार किया है । इस ध्यान को करने से जीव या साधक की नित्य अनित्यादि पर्यायों का विचार करने से वैराग्य की भावना प्रशस्त एवं सुदृढ़ हो जाती है और वह इस ध्यान की परिधि में आ जाता है । इस ध्यान के लिए साधक को तीन लोकों का चिन्तन करने के लिए कहा गया है वे तीनों लोक निम्न प्रकार से इस तरह हैं + (क) भगवती आराधना वि० टी० १७०६ (ख) शास्त्रसार समुच्चय, पृ० २८८ R (क) अनित्याद्या अनुप्रेक्षा द्वादशानन्तशर्मदाः । वैराग्यमातरो रागनाशिन्योमुक्तिमातृकाः॥ चिन्त्यते रागनाशाय यत्रवैराग्यवृद्धये । योगिभिर्योगसंसिद्धयै संस्थानविचयहि तत् ॥ (मूलाचार प्रदीप ६/२०६०-६१) (ख) ज्झाणोवरमे वि मुणी णिच्चमणिच्चादिचिंतणापरमो । होइसुभावियचित्तो धम्मज्झाणे जिह व पुव्वं ।। (षट्खण्डागम धवला टी. १३/५/४/२६/५०) - जिणदेसियाइ लक्खण संठाणासणविहाणमाणाई। उप्पाद-ट्ठिदिभंगादिपज्जया जेय दव्वाणं ॥ पंचत्थिकायमइयं लोगमणाइणिहणं जिणक्खादं । णामादिभेयविहियं तिविहमहोलोगभागादि ।। [षट्खण्डागम धवला टी. १३/५/४/२६/४३.४४)
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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