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________________ धर्म ध्यान का स्वरूप (१४६) स्वाध्याय का एक अंग अनुप्रेक्षा भी है। ध्यान को सिद्धि के लिए अनुप्रेक्षा का अभ्यास बहुत ही जरूरी है । इनके अभ्यास से साधक का मन सुवासित हो जाता है वह समभाव को प्राप्त हो जाता है । धर्मध्यान के लिए स्थानाङ्ग में चार अनुप्रेक्षायें बतलायी गयी हैं । + लेकिन ध्यानशतक में सभी बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तवन करने के लिए कहा गया है। इन बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन पहले किया जा चुका है । * धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षायें इस प्रकार हैं : एकत्व अनुप्रेक्षा अकेलेपन का अनुभव करके चिन्तन करना । अनित्य अनुप्रेक्षा जगत् में सभी पदार्थ अनित्य हैं, नश्वर हैं । अशरण अनुप्रेक्षा - जगत् में धर्म के सिवा कोई शरण नही है | संसार अनुप्रेक्षा - संसार में जन्म-मरण के चक्र का करना । परिवार हैं । - करना चाहिये । १०- लेश्या : चिन्तन स्वाध्याय आदि तपोयोग एवं बारह अनुप्रेक्षायें ये सब ध्यान के ही अतः मोक्ष के अभिलाषी को निरन्तर ध्यान का यत्न ध्यान साधना का नाम है, किन्तु इसमें प्रक्रिया और अनुभूतियाँ नई नहीं होती हैं । यह कषायों से अनुरंजित योगों की प्रवृत्ति है । ..... + झाणोवरमेऽवि मुणी णिच्चमणिच्चा इभावणापरमो । होइ सुभावियचित्तो धम्मज्झाणेण जो पुव्विं ॥ ( ध्यान शतक ६५ ) * धम्मस्सं णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पं तं -एगाणुप्पेहा अणिच्चाणुपेहा असरणाणुप्पेहा ससाराणुप्पेहा (स्थानाङ्ग पू. १८८) ध्यानस्यैव तपोयोगाः शेषाः परिकरा मताः - .... ध्यानाभ्यासे ततो यत्नः शश्वत्कार्यो मुमुक्षुभि: । ( आषं २१ / २१५) (क) मोहोदय खओवस मोवसमखयजजीव फंदणं भावो । (गोम्मटसार, जीवकाण्ड, मूल ५३६ / ९३१) (ख) कषायोदया रंजिता योगप्रवृत्तिरिति (सर्वार्थसिद्धि २ / ६ / १५६ / ११
SR No.002540
Book TitleJain Parampara me Dhyana ka Swaroop
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSima Rani Sharma
PublisherPiyush Bharati Bijnaur
Publication Year1992
Total Pages278
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size10 MB
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