SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्यायाचार्य-न्यायविशारद-महोपाध्याय श्रीयशोविजय रचिता * परमात्म-पचविंशतिका * परमात्मा परम्ज्योतिः, परमेष्ठी निरञ्जनः । प्रजः सनातनः शुभः , स्वयम्भूर्जयताज्जिनः ॥१॥ परमात्मा, परंज्योति, परमेष्ठी, निरंजन, अज, सनातन, शंभु एवं स्वयंभू श्री जिनेश्वर प्रभु की जय हो। (१) नित्यं विज्ञानमानन्दं, ब्रह्म यत्र प्रतिष्ठितम् । शुद्धबुद्ध स्वभावाय, नमस्तस्मै परात्मने ॥२॥ जहाँ निरन्तर विज्ञान, प्रानन्द और ब्रह्म प्रतिष्ठित है, उन शुद्ध बुद्ध स्वभावी परमात्मा को नमस्कार हो । (२) अविद्याजनितैः सर्वै -विकारैरनुपद्रुतः । व्यक्त्या शिवपदस्थोऽसौ, शक्त्या जयति सर्वगः ॥३॥ जो अज्ञान-जनित समस्त प्रकार के विकारों से अनपद्रत हैं, व्यक्ति के द्वारा शिव-पद में विद्यमान हैं और शक्ति के द्वारा सर्वत्र व्यापक हैं । (३) यतो वाचो निवर्तन्ते, न यत्र मनसो गतिः । शुद्धानुभवसंवेद्य, तद्रूपं परमात्मनः ॥४॥ जहाँ से वाणी लौट आती है और जहाँ से मन की गति नहीं होती; केवल शुद्ध अनुभव से ही ज्ञात हो सकने वाला परमात्मा का स्वरूप है । (४) न स्पर्शो यस्य नो वर्णो, न गन्धो न रसश्श्रतिः । शुद्धचिन्मात्रगुरगवान्, परमात्मा स गीयते ॥५॥ जिनके स्पर्श नहीं है, वर्ण नहीं है, गंध नहीं है, रस नहीं है तथा शब्द नहीं है और जो केवल शुद्ध ज्ञान-गुण के धारक हैं वे परमात्मा कहलाते हैं । (५) जिन भक्ति ] [ 65 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy