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________________ पदार्थ सर्वदा सत् तथा कथंचित् सत् है । इस प्रकार पदार्थों का ज्ञान क्रमशः दुर्नय, नय एवं प्रमाण मार्ग के द्वारा होता है; किन्तु हे भगवन् आप यथार्थदर्शी ने नय मार्ग एवं प्रमाण मार्ग के द्वारा दुर्नयवाद का निराकरण किया है । ( २८ ) मुक्तोऽपि वाभ्येतु भवं भवो वा, भवस्थशून्योऽस्तु मितात्मवादे षड्जीवकायं त्वमनन्तसंख्य माख्यस्तथा नाथ ! यथा न दोषः ॥२६॥ जो मनुष्य जीवों को अनन्त न मान कर परिमित संख्या में मानते हैं उनके मतानुसार मुक्त जीवों को पुनः संसार में जन्म धारण करना चाहिये अथवा यह संसार एक दिन जीव विहीन हो जाना चाहिये; परन्तु हे भगवन् ! आपने छः काय के जीवों को उस प्रकार अनन्त संख्या युक्त प्ररूपित किया है जिससे आपके मत में उपर्युक्त दोष नहीं प्रा सकता । (२६) श्रन्योऽन्यपक्षप्रतिपक्षभावाद् यथा परे मत्सरिणः प्रवादाः । नयानशेषान विशेषमिच्छन्, न पक्षपाती समयस्तथा ते ||३०| अन्य वादी जिस प्रकार परस्पर पक्ष एवं प्रतिपक्ष भाव रखने से एक दूसरे के प्रति ईर्ष्या रखते हैं, उस प्रकार से समस्त नयों को समान मानने वाले आपके शास्त्रों में किसी का भी पक्षपात नहीं है । ( ३० ) वाग्वैभवं ते निखिलं विवेक्तु Jain Education International माशास्महे चेन्महनीयमुख्य ! | लङ्घम जङ्घालतया समुद्र, वहेम चन्द्रद्य तिपानतृष्णाम् ||३१|| हे पूज्य शिरोमणि ! आपकी वाणी के वैभव का पूर्णरूपेण विवेचन करने की आशा रखना हम जैसों के लिए जंघा - बल से समुद्र लांघने की आशा करने के समान है अथवा चन्द्रमा की चांदनी को पान करने की तृष्णा के समान है । (३१) जिन भक्ति ] For Private & Personal Use Only [ 49 www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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