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________________ सारिव्व बंधवहमरणभाइरणो जिरण ! न हुंति पई दिठे। अक्खेहि विहीरंता, जीवा संसारफलयमिम ॥३२॥ (शारय इव बन्धवधमरणभागिनो जिन ! भवन्ति त्वयि दष्टे । अक्षरपि हि यमारणा जोवाः संसारफल के ॥) जिस प्रकार पाशों से खिचे हुए मोहरे बंध, वध, एवं मृत्यु के भाजन बनते हैं उसी प्रकार से हे जिनेश्वर ! इस संसार रूपी फलक में इन्द्रिय रूपी मोहरों से गतियों में भ्रमण करते जीव जब आपको (यथार्थ बुद्धि के द्वारा) देखते हैं तब वे (तिर्यंच और नरक गति से सम्बन्धित) बंध, वध, एवं मृत्यु के भागी नहीं होते। (३२) अवहीरिया तए पह ! निति नियोगिक्कसंखलाबद्धा । कालमणंतं सत्ता, समं कयाहारनीहारा ॥३३॥ (अवधोरितास्त्वया प्रभो! नयन्ति निगोदैकशृङ्खलाबद्धाः। कालमनन्तं सत्त्वाः समं कृताहारनीहाराः ।) (जिस प्रकार कुछ राजपुरुष राजा की अवहेलना होने पर कारागृह में लोहे की जंजीरों में बँध कर अन्य कैदियों के साथ सम काल में आहार एव नीहार की क्रियाएँ करने में अत्यन्त समय खोते हैं उसी प्रकार से) हे नाथ ! (अव्यवहार राशि के कारण साधन के अभाव में धर्मोपदेश से वंचित रहने के कारण) आप द्वारा तिरस्कृत जीव निगोद रूपी एक ही जंजीर से बँध कर एक साथ आहार-नीहार करने में अनन्त काल खोते जेहिं तत्रिपारणं तव-निहि ! जासइ परमा तुमम्मि पडिवत्ती। दुक्खाइं ताई मन्ने, न हुति कम्मं अहम्मस्स ॥३४॥ (यस्तापितानां तपोनिधे ! जायते परमा त्वयि प्रतिपत्तिः । दुःखानि तानि मन्ये न भवन्ति कर्माधर्मस्य ॥) हे तपोनिधि ! जिन दुःखों से पीड़ित जीवों को आपके प्रति आन्तरिक प्रेम उत्पन्न होता है, वे दुःख अधर्म के कार्य नहीं हैं, (परन्तु वे पुण्यानुबंधी होने से उल्टे प्रशंसनीय हैं) यह मैं मानता हूँ। (३४) । 26 ] . जिन भक्ति ....... .. . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002534
Book TitleJina Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1989
Total Pages142
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, & Ritual
File Size5 MB
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