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________________ तीसरा उद्देशक लब्धि-प्राप्ति प्रचुरमात्रा में होती है। (यदि यह राजकुमार उत्प्रव्रजित हो जाता है तो श्रमणों का यश आदि न्यून हो जायेंगे। यह सोचकर प्रत्यनीक अमात्य को यह बात कहते हैं।) ३७६२.दट्ठण य राइडिं, परीसहपराइतो तहिं कोइ। आपुच्छइ आयरिए, सम्मत्ते अप्पमाओ हु॥ ३७६३.नाऊण य माणुस्सं, सुदुल्लभं जीवियं च निस्सारं। संघस्स चेतियाण य, वच्छल्लत्तं करेज्जाहि॥ परीषहों से पराजित एक राजपुत्र राजसमृद्धि को देखकर अमात्य के साथ जाने के लिए आचार्य से पूछता है। तब आचार्य कहते हैं-'वत्स! सम्यक्त्व में निश्चितरूप से अप्रमत्त रहो। मनुष्यत्व अत्यंत दुर्लभ है और जीवन निस्सार है, यह जानकर संघ, चैत्यों की वत्सलता-भक्ति करो।' ३७६४.किं काहिंति ममेते, पडलग्गतणं व मे जढा इड्डी। __ को वाऽनिट्ठफलेसुं, विभवेसु चलेसु रज्जेज्जा। दूसरे राजपुत्र मुनि ने कहा ये अमात्य आदि मेरा क्या करेंगे? मैंने पट पर लगे तृण की भांति राज्यऋद्धि का परित्याग कर दिया है। ये राज्यविभव अनिष्टफल वाले तथा चल हैं, अस्थिर हैं। इनमें कौन आसक्त होगा? ३७६५.तइओ संजमअट्ठी, आयरिए पणमिऊण तिविहेणं। गेलन्नं नियडीए, अज्जाण उवस्सगमतीति॥ तीसरा राजपुत्र मुनि संयमार्थी था। उसको आचार्य ने कहा-'तुम आर्यिका के प्रतिश्रय में छुप जाओ।' तब वह तीन करण-योग से आचार्य को प्रणाम कर मायापूर्वक ग्लानत्व कर आर्यिकाओं के उपाश्रय में प्रवेश करता है। ३७६६.अंतद्धाणा असई, जइ मंसू लोय अंबिलीबीए। पीसित्ता देंति मुहे, अपगासे ठवेंति य विरेगो॥ यदि मुनियों के पास अन्तर्धान करने के साधन हों तो उनका प्रयोग कर उस मुनि को अपने उपाश्रय में ही रख दें। यदि साधन न हों तो आर्यिका के वस्त्र पहना कर उसे उनके प्रतिश्रय में ले जाए। यदि उसके दाढ़ी-मूंछ हो तो उसका लोच करें और अम्ली बीजों की पिष्टी बनाकर मुंह पर उसका लेप करे। आर्यिका की वसति में उसे अप्रकाश में स्थापित करे और उसके लिए विरेचन का। प्रयोग करे। ३७६७.संथार कुसंघाडी, अमणुन्ने पाणए य परिसेओ। घंसण पीसण ओसह, अद्धिति खरकम्मि मा बोलं॥ उसको मुनि संस्तारक पर सुलाए। उसे मलिन शाटिका से प्रावृत कर दे। अमनोज्ञ अर्थात् दुर्गन्ध पानक से उसको परिषेक-आचमन कराए। वहां कुछ साध्वियां चंदन घिसे ३८९ और कुछ औषधी को पीसे। कुछ साध्वियां अधृति-शोकमग्न होकर वहां बैठे। वहां जब खरकर्मिक-राजपुरुष आएं तो उन्हें कहे-ग्लान साध्वी बोलचाल की ध्वनि को सहन नहीं कर पाती। (अमात्य आदि तथा अन्य राजपुरुष वहां से लौट आते हैं।) ३७६८.दोन्नि वि सह भवंती, सो वऽसहू सा व होज्ज ऊ असहू। दोण्हं पि उ असहूणं, तिगिच्छ जयणाय कायव्वा॥ ग्लान साध्वी और प्रतिचरक साधु की चतुर्भंगी१. ग्लान साध्वी और प्रतिचरक साधु-दोनों सहिष्णु। २. साध्वी सहिष्णु, साधु असहिष्णु। ३. साध्वी असहिष्णु, साधु सहिष्णु। ४. दोनों असहिष्णु। इन चारों विकल्पों से यतनापूर्वक चिकित्सा करनी चाहिए। ३७६९.सोऊण ऊ गिलाणं, पंथे गामे व भिक्खवेलाए। जइ तुरियं नागच्छइ, लग्गइ गुरुए चउम्मासे॥ यदि मुनि ग्लान साध्वी के विषय में विहरण करते हुए, या गांव में अथवा भिक्षावेला में सुने और तत्काल वहां उसके पास नहीं जाए तो चतुर्गुरु का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ३७७०.लोलंती छग-मुत्ते, सोउं घेत्तुं दवं तु आगच्छे। तूरंतो तं वसहिं, णिवेयणं छायणऽज्जाए। एक गृहस्थ ने मुनि से कहा-'महाराज! आपकी एक साध्वी यहां ग्लान है। क्या आप उसकी प्रतिजागरणा करेंगे?' उसने आगे कहा-'यहां वह साध्वी अपने ही मलमूत्र में लुठ रही है।' यह सुनते ही मुनि द्रव-पानक लेकर शीघ्रगति से संयती वसति पर पहुंचे और शय्यातरी से निवेदन कराए कि मुनि आए हैं। वह शय्यातरी उस ग्लान साध्वी को भलीभांति प्रावृत कर दे। ३७७१.आसासो वीसासो, मा भाहि इति थिरीकरण तीसे। धुविउं चीरऽत्थुरणं, तीसेऽप्पण बाहि कप्पो य॥ __पश्चात् मुनि भीतर जाकर उस ग्लान साध्वी से कहे'तुम आश्वस्त हो जाओ। मैं तुम्हारा वैयावृत्य करूंगा। तुम विश्वस्त होकर मुझ पर भरोसा करो। मेरे से तुम डरो मत।' इस प्रकार कहकर उसका स्थिरीकरण करे। उसके वस्त्र और आस्तरण को धोए और उसी के औपग्रहिक वस्त्रों को पहनने के लिए दे। यदि न हो तो स्वयं का संस्तारक बिछाए, वस्त्र भी दे। फिर खरड़े हुए वस्त्रों आदि का उपाश्रय के बाहर प्रक्षालन करे, भूमी का भी उपलेपन करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002533
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages474
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size13 MB
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