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________________ पीठिका होता। की भिन्न-भिन्न होती है। इस प्रकार ज्ञान सर्वाकाशप्रदेशों से निवारण करने के लिए वह लाठी को जमीन पर पटकती है। भी अनंतगुणा अधिक है। यह सारा अनक्षरश्रुत है। ७२. णाणं तु अक्खरं जेण खरति ण कयाइ तं तु जीवातो। ७८. सन्नाणेणं सण्णी, कालिय हेऊ य दिट्ठिवाए य। तस्स उ अणंतभागो, न वरिज्जति सव्वजीवाणं॥ आदेसा तिण्णि भवे, तेसिं च परूवणा इणमो॥ ज्ञान अक्षर है, क्योंकि वह कभी भी जीव से क्षरित नहीं संज्ञी वह होता है जिसमें संज्ञान हो। इस विषयक तीन होता। सभी जीवों के ज्ञान का अनंतवां भाग कभी आवृत नहीं आदेश-मत हैं, जैसे-कालिक्युपदेशिकी, हेतूपदेशिकी और दृष्टिवादोपदेशिकी। उनकी प्ररूपणा यह है७३. एक्कको जियदेसो, नाणावरणस्स हुंतऽणतेहिं। ७९. खंधेऽणंतपएसे, मणजोगे गिज्झ गणणतोऽणते। अविभागेहाऽऽवरितो, सव्वजियाणं जिणे मोत्तुं॥ तल्लद्धि मणेति तहा, भासादब्वे व भासते॥ केवलज्ञानियों को छोड़कर शेष सभी जीवों का एक-एक प्रश्न होता है कि कालिक्युपदेशिकी संज्ञा वाले प्राणियों जीव प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के अनंत अविभक्त आवरणों से के मानसिक व्यापार कैसे होता है? आचार्य कहते हैंआवृत होता है। मानसिक लब्धि से युक्त प्राणी मनोयोग्य अनंतप्रदेशी-संख्या ७४. जति पुण सो वि वरिज्जेज्ज तेण जीवो अजीवयं गच्छे।। से अनंत पुद्गलस्कंधों को ग्रहण कर मनन करता है। तात्पर्य सुट्ट वि मेहसमुदए, होति पभा चंद-सूराणं॥ है कि वह इन मनो द्रव्यों से ईहा, अवाय, मार्गणा कर भावों जैसे अत्यधिक मेघ समुदय से आवृत हो जाने पर भी को जानता है। तथा भाषालब्धि से युक्त प्राणी भाषा द्रव्यों को चांद और सूर्य की प्रभा उपलब्ध होती है, वैसे ही जीव का लेकर बोलता है। एक-एक प्रदेश कर्म से आवृत हो जाने पर भी, ज्ञान का ८०. रूवे जहोवलद्धी, चक्खुमतो दंसिए पगासेण। अनंतवां भाग सदा उद्घाटित रहता है। यदि वह भी आवृत इय छव्विहमुवओगो, मणदव्वपगासिए अत्थे।। हो जाए तो जीव अजीवता को प्राप्त हो जाता है, अजीव हो जैसे घट आदि पदार्थ प्रकाश से प्रकाशित होने पर जाता है। चक्षुष्मान् व्यक्ति के चक्षु से उनकी उपलब्धि होती है, वैसे ही ७५. अव्वत्तमक्खरं पुण, पंचण्ह वि थीणगिद्धिसहिएणं। मनोद्रव्य द्वारा प्रकाशित अर्थ (मनन किये हुए विषय) में छह णाणावरणुदएणं, बिंदियमाई कमविसोही॥ प्रकार का शब्द, रूप, रस, गंध, स्पर्श तथा अतीत, अनागत पांचों स्थावरकायिक जीव स्त्यानगद्धिनिद्रा से भावित भावविषयक उपयोग होता है। (जो ईहा, अपोह आदि के होने के कारण तथा ज्ञानावरणीय का उदय होने के कारण द्वारा स्पष्टतर उपयोग होता है वह दीर्घकालिक्युपदेश से उनका अक्षर-ज्ञान अव्यक्त होता है। द्वीन्द्रिय आदि जीवों में संज्ञीश्रुत है। जिसके मनोद्रव्य का अभाव होता है, उसके ईहा क्रमशः वह विशुद्ध होता जाता है। आदि नहीं होते। वह असंज्ञी प्राणी है।) ७६. ऊससियं नीससियं, णिच्छूढं खासियं च छीयं च। ८१. एसेव य दिट्ठतो, नातिफुडे खलु जहा पगासेणं। णिस्सिंघियमणुसार, अणक्खरं छेलिआदीयं ॥ होउवलद्धी रूवे, अस्सण्णीणं तहा विसए। उच्छ्वसित, निःश्वसित, निष्ठत-थूकना, खांसी करना चक्षुलक्षण वाला यही दृष्टांत असंज्ञी प्राणियों के छींकना, निस्सिंघित-नाक से श्लेष्म निकालना, शेण्टित- अर्थावबोध में जानना चाहिए। जैसे चक्षुष्मान् व्यक्ति के भी सीटी बजाना, अनुस्वार आदि अनक्षरश्रत है। मंद प्रकाशित रूप-पदार्थ की उपलब्धि मंद होती है वैसे ही ७७. टिट्टि त्ति नंदगोवस्स बालिया वच्छए निवारेइ।। असंज्ञी प्राणियों के शब्द आदि विषय में उपयोग मंद होता है टिट्टि ति य मुद्धडए, सेसे लट्ठीनिवाएण॥ क्योंकि उनमें विशिष्ट मनोद्रव्य की उपलब्धि नहीं होती। खेत की रखवाली करने वाली नंद गोप की बालिका गाय ८२. अहवा मुच्छित मत्ते, पासुत्ते वा वि होइ उवलंभो। के बछड़े आदि का तथा हरिणों का निवारण करने के लिए ___ इय होति असन्नीणं, उवलंभो इंदिया जेसिं॥ 'टि-टि' आदि शब्द का उच्चारण करती है। शेष प्राणियों का अथवा मूर्छित, मत्त और प्रसुप्त प्राणी को जैसे अव्यक्त १. सव्वजीवाणं पि यणं अक्खरस्स अणंतो भागो निच्चुग्घाडिओ.........। जा होतऽणुत्तरसुरा, सव्वविसुलं तु पुव्वधरे॥ (वृ. पृ. २७) २. जिनका आगे विभाग नहीं किया जाता, ऐसे आवरण। वह ज्ञान द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर अनुत्तर वैमानिक जीवों तक ३. तं चिय विसुज्झमाणं, बिंदियमादि कमेण विन्नेयं । विशुद्ध होता जाता है। पूर्वधर में वह श्रुतज्ञान पूर्णविशुद्ध हो जाता है। -- Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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