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________________ ६६ बृहत्कल्पभाष्यम् गाथा संख्या विषय उवस्सए उदग-पदं ३४१९ मदिरा के साथ पानी का संबंध । ३४२० शीतोदक-उष्णोदक, प्राशुक-अप्राशुक की चतुर्भंगी तथा उनसे युक्त उपाश्रय में रहने से प्रायश्चित्त। ३४२१-३४२९ शीतोदक से युक्त उपाश्रय में रहने से अगीतार्थ के लिए अयतना का स्वरूप। उवस्सए जोइ-पदं सूत्र ६ ३४३० अग्नि पानी दोनों परस्पर प्रतिपक्षी कैसे? ३४३१,३४३२ 'हुरत्था' शब्द का अर्थ आदि। ३४३३-३४५८ ज्योति का स्वरूप। वहां रहने से लगने वाले दोष। प्रतिलेखन, प्रमार्जन आदि पदों के द्वारा निरूपण। तत्संबंधी प्रायश्चित्त और यतनाएं। उवस्सए पईव-पदं सूत्र ७ ३४५९,३४६० 'हुरत्था' शब्द का अर्थ आदि। ३४६१-३४७३ दीपक के दो प्रकार। उनसे युक्त उपाश्रय में रहने से लगने वाले दोष। प्रतिलेखना, प्रमार्जना आदि द्वारों द्वारा उनकी स्खलना। तद्विषयक प्रायाश्चित्त एवं वहां रक्षणीय यतनाएं। उवस्सए असणाइ-पदं सूत्र ८ ३४७४-३४७७ प्रस्तुत सूत्र में गृहीत पिण्ड, लोचक, फाणित, शष्कुली, शिखरिणी आदि पदों की व्याख्या। ३४७८,३४७९ पिण्ड आदि से आकीर्ण उपाश्रय में रहने वाले निग्रंथ-निग्रंथियों के लिए प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। सूत्र ९ ३४८० कुतूहल वश भोज्य पिंड खाने की संभावना। सूत्र १० ३४८१ आचार्य द्वारा पूर्वदृष्ट पिंड सन्निचय का कथन। ३४८२,३४८३ अवलिप्त, पिहित या मुद्रित पिंड वाले उपाश्रय में वर्षावास में रहना कल्पनीय अन्यथा प्रायश्चित्त। आगमणगिहादिसु वास-पदं सूत्र ११ ३४८४,३४८५ श्रमणियों का आगमनगृह, विवृतगृह, वंशीमूल, गाथा संख्या विषय वृक्षमूल अथवा अभ्रावकाश स्थानों में रहना अकल्पनीय और रहने पर प्रायश्चित्त तथा आज्ञाभंग आदि दोष। ३४८६-३४९८ आगमनगृह की व्याख्या तथा वहां रहने से लगने वाले विविध दोष और प्रायश्चित्त का विधान। ३४९९-३५०३ विवृतगृह, वंशीमूल तथा वृक्षमूल और अभ्रावकाश स्थान में रहने से लगने वाले दोष। ३५०४-३५०९ अपवाद स्वरूप श्रमणियों को आगमनगृह आदि स्थानों में रहने की विधि। सूत्र १२ ३५१०-३५१७ निग्रंथों के रहने योग्य आगमनगृह आदि का स्वरूप और तत्र रहने की विधि। सागारिय-पदं - सूत्र १३ ३५१८ दोषों से विवर्जित उपाश्रय में अनुज्ञापूर्वक रहने का विधान। ३५१९,३५२० शय्यातर कौन? कब ? उसका पिंड कितने प्रकार का तथा अशय्यातर कब ? किस मुनि से संबंधित शय्यातर परिहर्तव्य और सागारिक पिंड के दोष आदि की प्रश्नावली। ३५२१-३४२४ सागारिक के पांच एकार्थक नाम तथा उनकी व्याख्या। ३५२५ शय्यातर का स्वरूप। ३५२६ सागारिक द्वारा संदिष्ट एक या अनेक के आधार पर चतुर्भगी। ३५२७-३५३१ शय्यातर कब अथवा कब नहीं, इस विषय में अनादेश और शास्त्रसम्मत्त आदेश। ३५३२-३५३५ शय्यातर के कल्प्य-अकल्प्य पिंड आदि का स्वरूप और उसके प्रकार। ३५३६-३५३८ शय्यातर कब नहीं होता? उसका स्वरूप तथा आदेश और अनादेश की विवेचना। ३५३९ शय्यातर कब वर्जनीय होता है ? रसापण दृष्टांत द्वारा उसकी पुष्टि। ३५४०-३५४९ तीर्थंकरों द्वारा शय्यातरपिण्ड का निषेध। उसके लेने पर तीर्थंकर की आज्ञाभंग आदि आठ दोषों का वर्णन। ३५५०-३५५५शय्यातर पिंड के कल्पनीय होने के कारणों का वर्णन। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002532
Book TitleAgam 35 Chhed 02 Bruhatkalpa Sutra Bhashyam Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDulahrajmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2007
Total Pages450
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bruhatkalpa
File Size14 MB
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